लोकतंत्र की सेहत के लिए सुकूनदायी है कि प्रजातंत्र- संविधान,- देश बचाओं के नाम पर ही सही लोग आंदोलन, मार्च करने की तरफ प्रवृत तो हो रहे हैं। पर क्या यशवंत सिंहा या शरद पवार इसका खुलासा करते हुए मोदी-शाह से ऐसा खतरा होने की बात कह कर देश बचाओं का आव्हान कर सकते हैं? नहीं कर सकते! और तो और नरेंद्र मोदी का सीधे नाम भी नहीं ले पा रहे है। मतलब शरद पवार, यशवंत सिंहा से ले कर मायावती, लेफ्ट, मुलायमसिंह सबका संकट यह है कि ये देश बचाने या संविधान बचाने की बात कर सकते है लेकिन ये सब खतरे में क्यों है और किसकी रीति-नीति के चलते ये स्थितियां बनी है उसे बताते हुए इंदिरा हटाओं देश बचाओं के जेपी अंदाज वाली बेबाकी नहीं दिखा सकते।
सुभाष चंद्र
नयी दिल्ली| देश-प्रजातंत्र, संविधान बचाओं के आव्हान और आंदोलन की घोषणा करते हुए जेपी के अनुयायी यशवंत सिंहा ने जनता को क्या बेबाकी से बताया है कि कौन है जिससे देश को खतरा है और उसे हटा देश को बचाना है? कहने को कह सकते है कि सब जानते हैं कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह से देश और लोकतंत्र को खतरा है। मोदी सरकार की रीति-नीति देश को दस तरह के खतरों में डाल रही है। और ऐसे सिनेरियों की रेखाओं में कई तर्क है। जैसे मोदी राज भारत की तासीर को ऐसा बदल दे रहा है जिसमें हिंदू बनाम मुसमलान का सोचना, दलित और जात विमर्श, नौजवानों की बेरोजगारी और संस्थाओं में बनता खोखलापन अंतत देश को तबाही की और ले जाएगा तो निरंकुशता को भी पैंठा देगा।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बागी नेता यशवंत सिन्हा ने पार्टी में अपने सहयोगी एवं सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के नेताओं तथा मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र के कुछ किसान नेताओं के साथ मिलकर एक दल निरपेक्ष राजनीतिक प्लेटफॉर्म ‘राष्ट्र मंच’ के गठन की घोषणा की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 70वीं पुण्यतिथि पर राजघाट में उनकी समाधि पर श्रद्धासुमन अर्पित करने के बाद श्री सिन्हा ने यहां काँस्टीट्यूशन क्लब रिपीट काँस्टीट्यूशन क्लब में अपने राजनीतिक, किन्तु गैर दलीय मंच के गठन की घोषणा की। उन्होंने कहा कि यह मंच देश के समक्ष ज्वलंत मुद्दों को जनता तक ले जाने और उन्हें जागरूक बनाने के लिए एक आंदोलन का काम करेगा और इसे कभी भी राजनीतिक दल नहीं बनने दिया जाएगा। इस मौके पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं कांग्रेस की सांसद रेणुका चौधरी, तृणमूल कांग्रेस के दिनेश त्रिवेदी, आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता एवं पूर्व पत्रकार आशुतोष, समाजवादी पार्टी के घनश्याम तिवारी आदि भी उपस्थित थे। श्री सिन्हा ने अपने आंदोलन से जुड़े पूर्व राजनयिक के सी सिंह, मध्यप्रदेश के किसान नेता शिवकुमार सिंह ‘कक्का’ महाराष्ट्र के किसान नेता प्रशांत बवांडे, शंकर अन्ना, प्रो. दीपक धोटे आदि का भी परिचय कराया और यह भी ऐलान किया कि वह एक फरवरी को संकटग्रस्त किसानों के साथ मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में आंदोलन करेंगे।इसी के साथ उन्होने आंदोलन का संकल्प लिए शत्रुघ्न सिन्हा, दिनेश त्रिवेदी, माजिद मेमन, संजय सिंह, सुरेश मेहता, हरमोहन धवन, सोमपाल शास्त्री, पवन वर्मा, शाहिद सिद्दीक़ी, मोहम्मद अदीब, जयंत चौधरी, उदय नारायण चौधरी, नरेंद्र सिंह, प्रवीण सिंह, आशुतोष और घनश्याम तिवारी आदि के राष्ट्रीय मंच में शामिल होने की घोषणा की। ये नाम कितने वजनदार हंै और अपने आपको आंदोलन में झौंकने में कितने समर्थ हैं यह ज्यादा मतलब वाली बात नहीं है। मतलब वाली बात देश बचाओ, प्रजातंत्र बचाओं की गूंज है। 26 जनवरी को मुंबई में भी एक मौन मार्च निकला था और शरद पवार के साथ सड़क पर मार्च करने वालों ने तब संविधान बचाओ की तख्तियां ली। गंभीर बात और गोलमोल एप्रोच! ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि भारत की राजनीति में अपन 1975 से देश बचाओ, संविधान बचाओ के नारे, संकट और आंदोलनों को देख रहे हंै लेकिन पहली बार यह अनुभव हो रहा है कि यशवंत सिंहा, शरद पवार या तमाम तरह के लोग इतनी गंभीर और आंदोलन की बात बोलते हुए भी यह कहने से बच रहे है कि देश या संविधान के खतरे में पड़ने की नौबत किससे है? सोचे देश-प्रजातंत्र बचाओ, संविधान बचाओ का जुमला अपने आपमें कितना गंभीर है। इसके खुलासे में यशवंत सिंहा ने भी कई बाते बताई। संकट के बतौर प्रमाण दस तरह की दलील है। मतलब लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं की आजादी खतरे में है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज मीडिया के आगे आ कर लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का खटका बता चुके है तो दलित हो, अल्पसंख्यक हो या नागरिक आजादी के झंडाबरदार सब बार-बार बोल रहे हंै कि फंला को बचाओं या फंला स्वतंत्रता कुचली जा रही है। दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, दलित हो या मुसलमान, हिंदूवादी शिवसैनिक हो या प्रवीण तोगडिया या मुस्लिम जमात के औवेसी सबका सुर है कि देश खतरे में है, संविधान खतरे में है मगर कोई यह नहीं बोलता कि यह सब फंला की बदौलत है!
उन्होंने कहा कि हम सब लोग वैचारिक रूप से जुड़े हैं न कि राजनीतिक दलों की सदस्यता के आधार पर। देश में जैसी परिस्थितियां बन रहीं हैं उससे आंदोलन में शामिल लोगों के मन में समान रूप से चिंता व्याप्त है। देश में भय का माहौल है जो सत्ताधारी पार्टी ने शासन का दुरुपयोग करके बनाया है। प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक संस्थाओं का क्षरण हो रहा है। संसद, उच्चतम न्यायालय, मीडिया सभी पर उस भय की छाया है। इसलिए हमने तय किया है कि हम चुप नहीं रहेंगे। उन्होंने कहा, “आज सच बोलना ईशनिंदा करना है। सरकार को लगता है कि प्रोपोगेंडा करने से सब मैनेज हो सकता है। जबकि फैक्ट (आंकड़े) आदेश देकर तैयार किये जा रहे हैं।”
उन्होंने कहा कि देश को आज़ाद हुए 70 साल हो चुके हैं लेकिन अाज भी देश उन्ही समस्याओं से ग्रस्त है जिनसे वह 70 साल पहले पीड़ित था। उन्हें लगता है कि अगर वे नहीं बोले तो गांधी जी का बलिदान व्यर्थ हो जाएगा। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार ने संसद का क्षरण कर दिया है। बजट के बाद नौ दिन के कामकाज को चार दिन में समेटा जाएगा। शीतकालीन सत्र भी छोटा कर दिया। इसी प्रकार से उच्चतम न्यायालय के चार शीर्ष न्यायाधीशों ने आरोप लगाया है कि अत्यधिक संवेदनशील मुकदमों काे चहेते जजों को मनमाने ढंग से सुनवाई के लिए आवंटित किया जा रहा है। सरकारी संस्थाओं खासकर जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग राजनीतिक विरोधियों की आवाज़ को दबाने के लिए किया जा रहा है। श्री सिन्हा ने कहा कि उनके मंच का उद्देश्य प्रजातंत्र एवं संस्थाओं की रक्षा करना, देश के 60 करोड़ किसानों की चिंता करना, रोज़गार के अवसर बढ़ाना, शहरी एवं ग्रामीण आबादी का जीवन स्तर सुधारना, महिलाओं की गरिमा तथा कमज़ोर तबको एवं अल्पसंख्यकाें के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना है।
जाहिर है यशवंत सिंहा, और उनके गठित मंच ने बीडा बड़ा उठाया है लेकिन रणनीति इशारों वाली है। यों यशवंत सिंहा ने शरद पवार के मुकाबले अधिक मुखरता दिखाई है। यह भी सोचा जा सकता है कि भाजपा, संघ परिवार के भीतर य़शवंत सिंहा के प्रति मौन समर्थन बना हुआ होगा। बावजूद इसके भाजपा और अन्य राजनैतिक दलों में आज वह गुर्दा, वह हिम्मत नहीं है जो 1975 के वक्त में थी। इंदिरा गांधी के वक्त विपक्षी नेता सीबीआई जैसी एजेंसियों से नहीं डरा करते थे। इंदिरा गांधी की यह एप्रोच भी नहीं थी कि नेताओं, मीडिया, जजों का टेंटूआ पकड़ उन्हे डरा कर रखा जाए! लालकृष्ण आडवाणी नाम के एक नेता की तब की सोच और आज की सोच पर जरा गौर करें। आडवाणी तब जो थे वे आज नहीं है। तब आडवाणी यह सोचते थे कि इंदिरा ने झुकने के लिए कहा तो मीडिया रेंगने लगा। लेकिन आज के वक्त में और खासकर हिंदूओं का नैतिक- वैचारिक बल देखिए कि आडवाणी मन में आज चाहे जो सोचे, खून के कितने ही घूट पीए लेकिन अपने प्रिय यशवंत सिंहा के राष्ट्रीय मंच को नैतिक समर्थन देने की बात वे कल्पना में भी नहीं सोच सकते। और आडवाणी को आज की राजनीति का प्रतिनिधि चेहरा माना जा सकता है। यशवंत सिंहा ने हिम्मत दिखाई, उनके साथ मंच पर आए लोगों ने भी तमाम तरह के मुद्दों में देश और प्रजातंत्र को खतरा बूझा। मगर ये सब इस नारे तक नहीं पहुंचे है कि मोदी हटाओं, देश बचाओ।