अशोक मिश्र
मानव कितना पतित हो गया?
संबंधों के महाकाश में
धूमकेतु अब उदित हो गया।
मानव कितना पतित हो गया?
लो मर्यादा का बंध तोड़
शुचि प्रेम, दया, सत्कर्म छोड़
मानव की पशु से लगी होड़
हैं अंतहीन यह भाग दौड़
दुराचार की प्रवहमान सरि
देख आज उर व्यथित हो गया।
मानव कितना पतित हो गया?
फिरता बन जीवन क्रीत दास
अभिलाषाएं हैं सब निराश
है शेष कहां अब मधुर हास
रे मानव मन के आस-पास
है युग संचित सत्कर्म व्यर्थ
अपकर्म ही जब फलित हो गया।
मानव कितना पतित हो गया?
दुराचारियों से सदाचार
सीखेगा मानव सद्विचार?
कैसा युग? विडंबना अपार
जन हृद वीणा के छिन्नतार
हुआ पराभव आज पुण्य का
पाप मुखर औ मुदित हो गया।
मानव कितना पतित हो गया?
तोड़ो कारा, तोड़ो बंधन
पलभर को भी रुके न चिंतन
सुन लो धरती मां का क्रंदन
मत खोजो कोई अवलंबन
पर निस्पंद समाज देखकर
आज प्रवासी चकित हो गया
मानव कितना पतित हो गया?
(कवि पत्रकारिता के साथ ही हास्य व्यंग्य में खूब रचते हैं।)