नई दिल्ली। भाजपा के छोटे और मझोले नेताओं को समझ नहीं आ रहा कि आखिर यशवंत सिन्हा को क्या हो गया है? लेकिन भाजपा के शीर्ष पर बैठे नेताओं को इसकी वजह पता है। वित्त मंत्री अरुण जेटली पर भाजपा के अंदर से ही हमले की बरसात हो रही है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने तो वह सब कह दिया जो राहुल गांधी भी कहने से बचते थे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि जेटली अचानक निशाने पर हैं? यशवंत सिन्हा की ऐसी क्या नाराजगी है कि उन्होंने अपने साथ-साथ अपने बेटे के भी राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगा दिया? भाजपा के छोटे और मझोले नेताओं को भी समझ नहीं आ रहा कि आखिर यशवंत सिन्हा को क्या हो गया है? लेकिन भाजपा के शीर्ष पर बैठे नेताओं को इसकी वजह पता थी। सुनी-सुनाई है कि यशवंत सिन्हा और भाजपा नेतृत्व के बीच एक समझौता हुआ था। उसी के तहत यशवंत खुद चुनाव नहीं लड़े और उन्होंने झारखंड के हजारीबाग से अपने बेटे जयंत सिन्हा को चुनाव लड़ाया। इसके एक हिस्से के मुताबिक मोदी सरकार में जयंत सिन्हा राज्यमंत्री बने और दूसरी के मुताबिक यशवंत का सिन्हा का यथोचित पुनर्वास होना था। आरएसएस भी इस करार का गवाह था। आरएसएस के एक नेता ने बताया कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यशवंत सिन्हा को राज्यपाल बनाकर राजभवन भेजना चाहता था, लेकिन यशवंत इतनी जल्दी राजनीति से संन्यास नहीं लेना चाहते थे, इसलिए बात बिगड़ी।
यशवंत सिन्हा भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और अटल जी के समय वित्त मंत्री भी रह चुके हैं। उनकी गिनती अच्छे वित्तमंत्रियों में की जाती है। ऐसा ‘टाइम’ ने भी लिखा था। इसलिए सिर्फ यह कहकर उन्हें खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि वे 80 वर्ष की उम्र में नौकरी चाहते हैं। वे कह क्या रहे हैं? वे कह रहे हैं कि विकास दर 5.7 प्रतिशत रह गई है, वह भी तब जब इसे नापने का तरीका बदल गया, वरना यह दर 3.5 प्रतिशत आएगी।
यशवंत एक अर्से से प्रधानमंत्री से भेंट चाहते रहे हैं, पर उन्हें अवसर नहीं मिला। पार्टी का एक वरिष्ठ नेता मिलकर अपनी बात रखना चाहता है, तो उसे अवसर तो दिया ही जाना चाहिए। सिन्हा को कश्मीर भेजा गया था, लेकिन उनकी अनुशंसाओं पर कहते हैं उनसे बातचीत भी नहीं हुई। बहरहाल, यशवंत सिन्हा यदि सही हैं तब भी उन्हें इस तरह अपनी बात नहीं रखनी चाहिए थी। इसलिए भी कि यह कांग्रेस नहीं है, भाजपा में अपनी बात रखने के अनंत अवसर हैं, लेकिन लेख लिखकर आप एक साथ संगठन, सरकार और नीतियों पर हमला कर दें, यह सर्वथा अनुचित है। इस उम्र में आप चाहते क्या हैं? पार्टी ने आपको पर्याप्त अवसर और सम्मान दिया, अब दूसरों की पारी है। आप कह रहे हैं कि मंदी है, यदि ऐसा है तो प्रत्यक्ष कर संग्रह में 15.5% की बढ़ोतरी कैसे हुई? केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा कह रहे हैं कि जीएसटी और नोटबंदी का फायदा लंबे समय में देखने को मिलेगा। इस पर नैराश्य में भरे यशवंत सिन्हा ने कहा कि लंबे समय में हम सब मर जाएंगे। अर्थात उपाय जल्दी किए जाने चाहिए। इतनी सी राय देने के लिए यश्वंत सिन्हा ने संघ पर भी सवाल उठा दिए। यह भी कहा कि वे राजनाथ सिंह और अन्य नेताओं की तरह अर्थशास्त्र नहीं जानते। तो क्या इसकी वजह यह तो नहीं कि वे अर्से से स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। एक अंतराल तक जरूरी रहे शख्स के लिए यह मानना असंभव हो जाता है कि अब नई पीढ़ी की पारी है, आप नेपथ्य में जा रहे हैं और आपको जाना भी चाहिए। यह ठीक ऐसा ही है जब असहमति महज असहमत होने की होती है, ताकि आपकी उपस्थिति और बौद्धिक चातुर्य को नए सिरे से दर्ज किया जा सके। यही तो है यशवंत सिन्हा की पीड़ा, जो उन्होंने इस तरह बयां की कि यदि मुझे साल भर से प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त नहीं मिला, तो क्या मैं उनके घर के बाहर धरना दूं। यदि इतनी ही बात थी, जो कलेजे में चुभ रही थी, तो चंहुओर आरोपों की बौछार क्यों कर दी। जहां तक शिवसेना और शत्रुघ्न सिन्हा का यशवंत सिन्हा के साथ बयान की तरफदारी करने का सवाल है, तो इसे आसानी से समझा जा सकता है। शिवसेना एक भी मौका नहीं चूकती और हमलावर हो जाती है, बिना इस बात की परवाह किए कि भाजपा के साथ उसका स्वाभाविक समझौता है। शत्रुघ्न सिन्हा भी अपने को चाट से भरे दोने की तरह समझते हैं। वे मानने को तैयार ही नहीं कि वह दोना कब का खाली हो चुका है और गैर-जरूरी भी। इसलिए वे कभी पार्टी लाइन तोड़कर नीतीश के हिमायती बन जाते हैं, तो कभी लालू की तरफदारी करने लगते हैं। वैसे पार्टी का क्षेत्रफल और जनाधार जब बढ़ता है, तब असहमत स्वर उभरते रहते हैं। सभ्ाी से सहमत होकर सरकार चलाई भी नहीं जा सकती। सरकार ही नहीं कोई भी प्रबंधन सभी से सहमत होकर प्रशासन नहीं चला सकता। गनीमत है कि यशवंत सिन्हा ने जेटली को वित्तमंत्री पद से हटाने की वकालत नहीं की। उन्हें यह समझना चाहिए कि नमो गैर-जरूरी बौद्धिक विमर्श में दिलचस्पी नहीं रखते।