इक्कीसवीं सदी में आने का गुमान और लगातार वैश्विक मानचित्र में गढ़ रहे नए मानक के बीच हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाए कि आज भी हर 4 भारतीय में से 1 भारतीय छुआछूत को मानता है, तो चैंकना स्वाभाविक है। लेकिन सच से न तो आप मुंह मोड़ सकते हैं और न ही हम। जी हां, बीते दिनों इस बात का खुलासा एक सर्वे के जरिए हुआ है।
अनंत अमित
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड, अमेरिका द्वारा करीब 42 हजार भारतीय घरों में किया गया सर्वे इस बात का सबूत है। साल 1956 में स्थापित इस संस्थान के हालिया सर्वे में सामने आए तथ्य काफी चैंकाने वाले हैं। इस सर्वे में जिन लोगों ने छुआछूत की बात को स्वीकारा है, वे सभी धर्म या जाति से हैं। इनमें मुस्लिम, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोग भी शामिल हैं। अगर जाति की बात की जाए, तो इस सर्वे से यह बात भी सामने आई है कि सबसे ज्यादा छुआछूत को ब्राह्मण समाज में माना जाता है। अगर धर्म की बात की जाए तो उसे सबसे पहले हिंदू फिर सिख और जैन धर्म का नाम आता है।
हम आपको बता दें कि इस सर्वे में लोगों से सवालों के जवाब ‘हां‘ या ‘ना’ में देने को कहा गया था। मसलन, क्या आपके घर में छुआछूत को माना जाता है? अगर इस सवाल का जवाब ‘ना’ में आता है, तो फिर अगला सवाल पूछा गया कि क्या आप किसी अनुसूचित जाति जनजाति के लोग को अपने किचन में घुसने देंगे? पूरे भारत में करीब 27 फीसदी लोगों ने ये माना कि वह छुआछूत को मानते हैं। मध्यप्रदेश के 53 प्रतिशत लोग छुआछूत में भरोसा रखते हैं। हिमाचल प्रदेश में 50 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 48 प्रतिशत, राजस्थान और बिहार में 47 प्रतिशत। उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत और उत्तराखंड में 40 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन रखते हैं। पश्चिम बंगाल भारत का सबसे प्रोग्रेसिव राज्य है, जहां मात्र एक प्रतिशत लोग ही छुआछूत को मानते हैं। केरल में दो प्रतिशत, महाराष्ट्र में चार प्रतिशत, नॉर्थ ईस्ट में सात प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 10 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन करते हैं।
गौर करने लायक यह भी है कि संविधान छुआछूत को 64 साल पहले ही खत्म कर चुका है, लेकिन लोगों के मन में आज भी यह कुप्रथा बसी हुई है। एक चैथाई से ज्यादा भारतीय छुआछूत मानते हैं और अपने घरों में किसी न किसी रूप में इसका पालन करते हैं। अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है। पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है। वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं। वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थीं यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी। कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था। उदाहरण के लिए – अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए, तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था।
छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी। यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था। वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था। ऋग्वेद में लिखा हैः-
“सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
“समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)
अर्थात्-हे मनुष्यांे, मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्ठा हो। मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ। जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्ठे मिले रहो।
इस वेद मंत्र से यह सिद्ध होता है कि उस समय कोई जाति या वर्ण भेदभाव नहीं था। सभी मानव जाति एक थी और एकता के भाव को रखते हुए सबके लिए सुख शांति की कामना करते थे। वैदिक काल में आध्यात्मिकता सिखलाई जाती थी, जिसे हासिल कर के स्वाभाविक ही शारीरिक और मानसिक सभी भेदभाव नहीं पाये जाते थे।
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। दलितों को श्दलितश् नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले हरिजन नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे, वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई। अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है। ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये, जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं। यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था। उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया। कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया। समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए।
आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज है और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज है। भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है खासकर उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है। असल में, दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित। पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पीछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई।
यह सही है कि भारतीय समाज में अनेक कुरीतियां रही हैं, किन्तु उन कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेकों सुधारवादी सद्प्रयास हुए। समाज में जातिपात और छुआछूत के लिए मनुस्मृति का उदाहरण दिया जाता है। कितने हिन्दुओं ने मनुस्मृति का अध्ययन किया होगा या कितने हिन्दू घरों में मनुस्मृति रखी जाती है? मनुस्मृति का उदाहरण देकर यह कहा जाता है कि परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई। फिर सारे मांगलिक अनुष्ठानों में भगवान के चरणों में ही जल, पुष्प, नैवेद्य क्यों अर्पित किया जाता है? वास्तव में देखा जाए तो हिन्दू समाज में जो कुरीतियां थीं, उसे पोषित कर समाज को तोडने का काम विधर्मियों ने किया। ब्रिटिश शासकों ने उसे ही अपना गुरुमंत्र बनाया और समाज को जातियों में बांटकर अपने शत्रुओं को निस्तेज करने का काम किया। ब्रितानियों ने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए भारतीय समाज को जाति और वर्गों में बांटने की नीति अपनाई। पुरी मंदिर की इस विकृति के बारे में जब ब्रितानियों को खबर लगी तो उन्होंने फौरन इसे वैधानिक स्वीकृति दे दी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेस्ले ने अपने कमांडिंग अफसर कर्नल कैंपबेल को पुरी कूच करने से पूर्व ‘ब्राह्मणों के धार्मिक पूर्वाग्रहों’ का पूर्ण ध्यान रखने के कड़े निर्देश दिए थे। उनकी कूटनीति काम कर गई। ब्रिटिश फौज जब पुरी पहुंची तो उसे कहीं से किसी तरह के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर चलते हुए उन्होंने गैर-हिन्दुओं के मंदिर प्रवेश पर निषेध की जो परम्परा थी, उसे 1809 में कानूनी जामा पहना दिया।
मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर डा. भीमराव अम्बेदकर और वीर सावरकर ने सार्थक आंदोलन किए। सावरकर ने रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर की स्थापना की। नारायण गुरु और ज्योतिबा फूले आदि दलित थे और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुखर रहे। जब अपने ही समाज में तिरस्कार और भेदभाव के शिकार व्यक्ति को छलावा या अन्य प्रलोभन के बल पर दूसरे मत के प्रचारक सम्मान देने का भरोसा देते हैं तो स्वाभाविक रूप से उस मत के प्रति प्रताडि़त व्यक्ति का आकर्षण भी बढ़ता है।छुआछूत और भेदभाव का कभी कोई समर्थन नहीं कर सकता और न ही ग्रंथों में कहीं इसका उल्लेख है। उलटे सैंकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं। भगवान राम को अपनी नौका में सवार कराने वाला केवट कोई ब्राह्मण नहीं था। वह समाज के उपेक्षित वर्ग से था, किन्तु प्रभु राम ने क्या उसे दुत्कार दिया? नहीं, बल्कि उसे गले लगाया और कहा, ‘‘तुम संग सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।’’