निशिकांत ठाकुर
भारतवर्ष में कोई व्यक्ति यदि रात में भूखा सोता है तो माना जा सकता है कि देश का सौभाग्य सो गया, लेकिन जब भूख से तड़पकर असमय काल का ग्रास बन जाता है तो कहा जा सकता है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपने दुर्भाग्य से पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। यही तो हुआ कोरोना काल में, जब हजारों भूखे मजदूर सैकड़ों मील अपने बाल-बच्चों को कंधे और गोदी पर टांगे या फिर अपने बैग को बच्चों के लिए ट्राली के रूप में इस्तेमाल करके पलायन करने के लिए मजबूर हो गए थे । कुछ तो अपने गंतव्य पर पहुंच गए पर, कुछ भूख से तड़प कर रास्ते में ही दमं तोड़ते रहे । बात पिछले वर्ष की ही तो है, जिसे हम-आप ही नहीं, विश्व ने देखा और खासकर भारत ने उसे झेला। यह भी ठीक है कि उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से सबक लेते हुए हमने बहुत कुछ सीखा और परिणामस्वरूप सरकार ने जनता के लिए अपने देश के किसानों द्वारा ही उपजाए अनाज के गोदामों का मुंह खोल दिया और फिर उनके दावे को मानें तो अस्सी करोड़ देश के कमजोर कामगारों को जीने का एक आधार दिया । पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायमूर्तियों एमआर शाह और पीवी नागरत्ना की पीठ ने भुखमरी को लेकर राज्य सरकारों पर कड़ी टिप्पणी की है। पीठ ने कहा कि कई बार कहा गया है कि देश में कोई भी नागरिक भूख से न मरे, केंद्र और राज्यों से उन्हें भोजन उपलब्ध कराने के लिए काम करना चाहिए, फिर भी लोग मर रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि युगोस्लाविया के एक प्रोफेसर ने, जो सारी दुनिया में ‘शरणार्थियों की समस्या’ पर शोध कर रहे थे, उनके एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था, ‘हमारे देश में महात्मा गांधी को भी गरीबी के दर्द का अनुभव तब हुआ, जब दक्षिण अफ्रीका में उन्हें तरह–तरह की यातनाएं भुगतनी पड़ीं और उससे प्रेरणा लेकर वे गरीबों की जिंदगी से सीधे जुड़ गए। महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ, जब उन्हें सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख मिटा नहीं सकता।’ वर्ष 1867-68 में सबसे पहले दादा भाई नौरेजी ने गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव पेश किया था। सुभाष चंद्र बोस ने भी वर्ष 1938 में इसकी पहल की थी। वर्ष 1947 में जब देश आजाद हुआ तो हर तीन में से दो व्यक्ति गरीब थे। आज कहा जाता है कि हर तीन में से एक व्यक्ति गरीब है। फिर आजादी के बाद ‘गरीबी हटाओ, देश बचाओ’ का नारा वर्ष 1974 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने दिया था। बाद में उनके बेटे राजीव गांधी ने भी इस नारे का उपयोग किया। इस नारे का प्रयोग पांचवीं पंचवर्षीय योजना में किया गया था। आज भी भूख से मौत के मामले सामने आते ही रहते हैं और सरकारें इन मामलों को गंभीरता से लेने के बजाय ख़ुद को बचाने के लिए लीपा-पोती में लग जाती हैं। यह बेहद शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ़्रेंकलिन रूज़वेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और वर्ष 1948 में आर्टिकल 25 के तहत भोजन के अधिकार के रूप में इसे मंज़ूर किया। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया, जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंज़ूरी हासिल है और कई देश इसे क़ानून का दर्जा भी दे रहे हैं। इस क़ानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा।
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने महान मानवीय पहलुओं पर विचार करते हुए कहा कि सभी कामगारों को सस्ता राशन उपलब्ध कराने के लिए राशन कार्ड उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इसे कैसे लागू किया जा सकता है, इस पर पीठ ने केंद्र से सुझाव मांगा है। पीठ ने सच ही तो कहा कि किसान और मजदूर, दोनों देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं, जिन्हें मदद की जरूरत है और वे मदद के पात्र भी हैं। पीठ ने सत्य की वास्तविकता के जख्मों को साफ करते हुए कहा कि पीड़ित नागरिक राहत के लिए सरकार तक नहीं पहुंच पा रहे हैं, तो सरकार को अपनी योजनाओं का फायदा पहुंचाने के लिए नागरिकों तक तो पहुंचना ही चाहिए। लेकिन, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी की यही तो पीड़ा थी कि सरकार पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक लाभ पहुंचाने का प्रयास तो करती है, पर सफल नहीं हो पाती; क्योंकि भ्रष्ट बिचौलिये लगभग 90 प्रतिशत रास्ते में ही निगल लेते हैं और पंक्ति में खड़े आखरी व्यक्ति तक केवल दस प्रतिशत ही लाभ पहुंच पाता है। बड़ी अट्टालिकाओं की ओर यदि नजर डालें तो किसी विदेशी को यह एहसास दिलाने के लिए काफ़ी है कि हमारा देश समृद्धि की बुलंदियों पर है, लेकिन वहीं यदि उन्हीं अट्टालिकाओं के नीचे बनी झुग्गी—झोपड़ियों पर नजर डालें तो इनमें वही लोग रहते हैं जिन्होंने इन अट्टालिकाओं के निर्माण में अपना योगदान दिया, लेकिन उनका यह सौभाग्य नहीं था कि वे उसे एक दिन के लिए भी अपना घर कह सकें, एक दिन भी इसमें गुजार सकें। अब तो अपने देश की गरीबी को और झुग्गियों को छुपाने के लिए किसी विदेशी पर्यटक के आने पर दीवार बनवाकर उसे ढक दिया जाता है, ताकि हमारी गरीबी का कोई मजाक न उड़ाए। हमारे देश की शान पर कोई अंगुली न उठाए। यही तो एक वर्ष तक देश में चले किसान आंदोलन में भी तो हुआ था, जहां धरना—प्रदर्शन कर रहे किसानों को विदेशी, आतंकी और न जाने क्या—क्या कहा गया। उनके पास से कोई न गुजरे, इसलिए उन्हें कील—कांटों से घेर दिया गया था। भला हो प्रधानमंत्री का, जिनकी समझ में एक वर्ष बाद यह बात आई कि सरकार द्वारा जो कुछ किसानों के लिए किया गया, वह उचित नहीं था। फिर उन्होंने स्वयं किसानों से माफी मांगी थी। उसके बाद किसानों का आंदोलन खत्म हुआ था।
प्रश्न उठता है कि आखिर मजदूरों और किसानों की गरीबी को कैसे दूर किया जाए, ताकि कोई भुखमरी का शिकार न होने पाए? आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अभी तक इस विषय पर विचार कर रहे हैं। सरकार का पूरा महकमा इसके पीछे लगा हुआ है। कहां हम विश्वगुरु बनने की दौड़ में खुद को सक्षम स्थापित करने में लगे हैं, लेकिन वहीं जब इस स्थिति के लिए पलटकर अपने को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि अभी बहुत पीछे हैं। यह ठीक है कि भुखमरी केवल भारत की समस्या नहीं है और इससे मौतें केवल भारत में ही नहीं होती हैं। लेकिन, अन्य देशों से अपनी तुलना करके हम क्या साबित करना चाहते हैं? क्या हम चाहते हैं कि भारत की तुलना सोमालिया, यमन, दक्षिण सूडान और उत्तर पूर्व नाइजीरिया से की जाए, जहां सालाना लगभग 20 लाख लोग भुखमरी के शिकार होते हैं। दुनिया भर में भुखमरी का दंश झेल रहे 81 करोड़ 50 लाख लोगों में से 60 फ़ीसद लोग ऐसे संघर्षरत इलाकों में रहते हैं, जहां उन्हें यह तक मालूम नहीं होता कि उन्हें अगली बार खाना कब मिलेगा। एक अन्य रिपोर्ट की मानें, तो भूख और ग़रीबी की वजह से रोज 25 हज़ार लोगों की मौत हो जाती है। 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से भी ज़्यादा है। भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फ़ीसद महिलाएं हैं। दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों की बढ़ोत्तरी हो रही है। हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ रहा है। 18 साल से कम उम्र के लगभग 45 करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं। इनमें से ज़्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरीजनित बीमारियों से होती हैं। कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए सालाना राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर है। विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है। यह संख्या तक़रीबन एक करोड़ 46 लाख है।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान माननीय न्यायमूर्ति पीवी नागरत्ना की मौखिक टिप्पणी हृदय की गहराइयों को छू लेने वाली है। उन्होंने कहा कि अंततः लक्ष्य यह है कि भारत में कोई भी नागरिक भूख से मरना नहीं चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे विकास के बावजूद यह हो रहा है नागरिक भूख से और खाने के अभाव में मर रहे हैं। अपनी पीड़ा को साझा करते हुए माननीय न्यायमूर्ति ने कहा गावों में वे अपना पेट कसकर बांध लेते हैं, ताकि उन्हें भूख न लगे और पानी पीकर सो जाते हैं। उन्होंने भावुक करने वाली टिप्पणी करते हुए कहा कि बड़े बच्चे ऐसा करते हैं; क्योंकि वे खाना खरीद नहीं सकते हैं। पता नहीं इस टिप्पणी के बावजूद हमारे देश के कर्णधारों को यह बात समझ में आएगी! अब तो ऐसा लगने लगा है कि यह सब सरकार की समझ में क्यों नहीं आती! हां, यदि समझ में आती है तो मुफ्त के राशन बांटकर ऐसे लोगों का भविष्य क्यों खराब करना चाहती है जो स्वयं रोजगार पाकर, कामगार बनकर अपना जीविकोपार्जन करना चाहते हैं। इसका निराकरण आमलोगों द्वारा कतई होने वाला नहीं है। इसका समाधान सत्ता में बैठे लोग ही कर सकते हैं। हां, बशर्ते उनकी इच्छा ऐसी हो, वे जमीन से जुड़े हों, गरीबी के जीवन को जिया हो। तभी वही ऐसा कर सकते हैं। सरकारें विकास के कार्य तो जरूर कर रही हैं, लेकिन फिर वही बात सामने आकर खड़ी हो जाती है कि इस विकास का शत—प्रतिशत लाभ पंक्ति में खड़े आखरी व्यक्ति को कब तक मिलेगा। वर्तमान केंद्रीय सरकार में विकास की चाहत तो इन दिनों दिखा है, लेकिन चमचमाती सड़कें, बड़ी—बड़ी अट्टालिकाएं तो सीमित लोगों को ही लाभ पहुंचाएंगी। समाज के हर उस व्यक्ति को कब भर पेट भोजन, पूरे शरीर को वस्त्र मिलेगा, जो आज भी भूखे पेट कपड़ा बांधकर और पानी पीकर सोने के अभ्यस्त हो चुके हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)