नई दिल्ली। अहमदाबाद के साबरमती तट पर हाल में संपन्न दो दिवसीय अधिवेशन में कांग्रेस पार्टी ने अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश तो की, लेकिन दिशा और रणनीति के अभाव में वह एक बार फिर असमंजस की स्थिति में ही नजर आई। वर्षों बाद जब मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे गैर-नेहरू-गांधी परिवार के नेता कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, तब भी पार्टी आत्ममंथन के बजाय भ्रम और बचाव की मुद्रा में दिखी।
अध्यक्ष खड़गे ने कार्यकर्ताओं से लोकतंत्र के लिए “दूसरी आजादी की लड़ाई” लड़ने का आह्वान किया और चुनाव प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग दोहराई। ईवीएम को लेकर संदेह प्रकट करना अब विपक्षी दलों की हार के बाद की सामान्य प्रतिक्रिया बन चुकी है। लेकिन क्या यह भूल जाना उचित है कि देश में एकमात्र आपातकाल कांग्रेस की ही देन थी?
वक्फ संशोधन विधेयक के बहाने राहुल गांधी ने फिर से आरएसएस का विरोध जताया और ब्राह्मण, दलित, मुस्लिम वोट को एक साथ लाने की रणनीति के तहत जातिगत जनगणना के लिए आंदोलन तेज करने की बात की। लेकिन पूरे अधिवेशन में पार्टी ने यह नहीं बताया कि जिन बड़े राज्यों में कांग्रेस एक बार सत्ता से बाहर हुई, वह अब तक क्यों नहीं लौट सकी — चाहे वह तमिलनाडु हो, उत्तर प्रदेश, बिहार या गुजरात।
कांग्रेस की यह विडंबना ही कही जाएगी कि वह सरदार पटेल की विरासत को तो याद करती है, लेकिन केवड़िया में उनकी प्रतिमा को नमन करने नहीं जाती। सरदार पटेल ने न केवल सैकड़ों रियासतों का भारत में विलय कराया, बल्कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में भी ऐतिहासिक भूमिका निभाई — जिसे कांग्रेस अब भी नजरअंदाज करती है।
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो या प्रयागराज का कुंभ — कांग्रेस का कोई बड़ा चेहरा इन धार्मिक व राष्ट्रीय आयोजनों में नहीं दिखता। जबकि अतीत में खुद राजीव गांधी के कार्यकाल में राम मंदिर का ताला खुला था। यह विरोधाभास कांग्रेस की मौजूदा सोच को स्पष्ट करता है।
कांग्रेस आज “जात-पात” की राजनीति को जिस तरह हवा दे रही है, वह उसकी ऐतिहासिक विचारधारा के विरुद्ध है। वहीं भाजपा, जो पहले जनसंघ के नाम से जानी जाती थी, अब राष्ट्रीय स्तर पर सबसे प्रभावशाली दल बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं ओबीसी वर्ग से आते हैं और भाजपा में पिछड़ी व दलित जातियों का व्यापक प्रतिनिधित्व है। कांग्रेस यदि सोचती है कि केवल जातिगत जनगणना से ओबीसी वोट उसे मिल जाएगा, तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी।
कांग्रेस में संगठनात्मक ढांचा लगभग खत्म हो चुका है। कई राज्यों में कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया बंद है। नेता चुनाव हारने के बावजूद पद छोड़ने को तैयार नहीं और आम जनता से कटे हुए हैं। दिल्ली जैसे शहर में कांग्रेस के नेता आप सरकार के गिरने के बाद सत्ता में लौटने के दिवास्वप्न देख रहे हैं, लेकिन रणनीति का कोई अता-पता नहीं।
कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को नेतृत्व सौंप कर कांग्रेस बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में भ्रम की स्थिति में है। वहीं विपक्षी गठबंधन भी भाजपा को हराने के लिए एकजुट होने के बजाय आपसी खींचतान में उलझा है।
अधिवेशन में खड़गे का यह कहना कि “जो मेहनत नहीं करना चाहता, वह पार्टी छोड़ दे” — पार्टी में नई गुटबाजी को जन्म दे चुका है। लंबे समय तक सत्ता में रहने के अहंकार से बाहर न आ पाने वाले नेता पार्टी को और नीचे ले जा रहे हैं।
आज आवश्यकता है आत्ममंथन की, जनता के बीच जाकर नए नेताओं को उभारने की और राष्ट्रवादी भावनाओं को सम्मान देने की। यदि कांग्रेस इन बुनियादी पहलुओं पर ध्यान नहीं देती, तो उसका पुनरुत्थान संभव नहीं है। पुरानी साख लौटाने के लिए सिर्फ भाषण नहीं, जमीनी स्तर पर मजबूत कार्यनीति चाहिए — और उससे भी ज़रूरी है सच का सामना करने का साहस।