वर्तमान में गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा का एक लंबा सामाजिक और राजानीतिक अनुभव है। बीते कई दशकों से वे साहित्य साधना में तल्लीन हैं। उनकी दर्जनों पुस्तकें विभिन्न विषयों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। उसने कई मुद्दों पर विशेष बात की गई। पेश है उस बातचीत के प्रमुख अंश:
हिंदुस्तान के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो महिला सशक्तीकरण के नाम पर कई सरकारों ने कदम बढ़ाए। लेकिन महिलाओं का 33 फीसदी आरक्षण का मामला आज भी संसद से पास क्यों नहीं हो पाता है?जब भी चुनाव की डुगडुगी बजती है, 33 फीसदी का मसला उठता है। चुनाव खत्म, बात हजम। आखिर राजनीतिक दलों की यह मानसिकता क्यों बन गई है?
हिंदुस्तान के परिप्रेक्ष्य में बात करें, तो महिला सशक्तीकरण के नाम पर कई सरकारों ने कदम बढ़ाए। लेकिन महिलाओं का 33 फीसदी आरक्षण का मामला आज भी संसद से पास क्यों नहीं हो पाता है? जब भी चुनाव की डुगडुगी बजती है, 33 फीसदी का मसला उठता है। चुनाव खत्म, बात हजम। आखिर राजनीतिक दलों की यह मानसिकता क्यों बन गई है?1996 के लोकसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणा पत्रों में विधानसभा और लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के संकल्प लिए गए थे। तब से लेकर आजतक हर चुनाव के पूर्व वह संकल्प दुहराया जाता है। महिलाओं के सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने भी ढ़ेर सारे प्रस्ताव पारित किए। आंदोलन हुआ। बात ठहर सी गई है। लेकिन इस बार शासक दल में सदस्यों की संख्या तीन सौ पैंतीस है। इस बार तो किसी अन्य दल से समर्थन व सहयोग लेने की भी आवश्यकता नहीं है। समाज मन इसे स्वीकार करने के लिए तैयार भी हो गया है। इसलिए आशा की जा सकती है कि इस बार लोकसभा में भी इस विधेयक को पारित करा लिया जाएगा। देर आयत, दुरुस्त आयत की स्थिति बनेगी।
देश में बढ़ रही है महिला अत्याचार पर आप क्या कहना चाहेंगी?
भारतीय समाज के लिए महिलाओं पर हो रहे विभिन्न प्रकार के अत्याचार अशोभनीय और अवांछनीय हैं। और यह कहने से बात नहीं बनेगी। मात्र अत्याचारियों को दोष देने से हमारे दायित्व की पूर्ति नहीं होगी। देखना यह है कि आखिर अत्याचार होता क्यों है। हमारी शिक्षा-दीक्षा में क्या कमी रह गई है। हम देखने और सुनने के लिए युवाओं के आगे क्या परोस रहे हैं। स्कूल से लेकर महाविद्यालय तक पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा का अभाव है। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ का सिद्धांत और व्यवहार कहीं ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। यह तो सत्य है कि महिलाओं पर बलात्कार या विभिन्न प्रकार के अत्याचार करने वाले नौजवान मानसिक बिमारी के शिकार हैं। और इन बिमारियों के कीड़े कहां उत्पन्न होते हैं ? कैसे नौजवानों को डसते हैं ? उन्हें मारने के प्रयास हो रहे हैं क्या ? बहुत गहराई और विस्तार से इन अशोभनीय कृतों पर काबू पाने के प्रयास होने चाहिए। केवल सड़कों पर उतरने, सरकारों को कोसने से बात नहीं बनेगी।
बीते कुछ दशक से साहित्य में महिला विमर्श को लेकर एक नया मानक बना है। कई बोल्ड लेखिका भी सामने आई हैं। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
जिस मायने में महिला विमर्श की चर्चा होती है, मैं उसमें विश्वास नहीं करती हूं। दरअसल परिवार के घटक स्त्री, पुरुष, बच्चे और वृद्ध हैं। सेवक-सेविकाएं भी। इसलिए इनका अलग-अलग विमर्श नहीं हो सकता। अलग-अलग करके उनकी समस्याओं को देखा भले जा सकता है, लेकिन उनके समाधान में चारों घटकों को लगाना होगा। समाज और सरकार भी। मैं उस महिला विमर्श से सहमत नहीं हूं जो स्त्री को परिवार से अलग करके खड़ा करता है और फिर उसकी समस्याओं का आकलन करता है। समस्याओं के समाधान में भी बाहर के लोगों को लगाता है, परिवार के सदस्य को नहीं। मैंने इन दिनों कहना प्रारंभ किया है कि ‘स्त्री सशक्तीकरण, पुरुष सशक्तीकरण, बच्चा सशक्तीकरण, और वृद्ध सशक्तीकरण नहीं, परिवार सशक्तीकरण के उपाय ढूंढ़ने चाहिए। तभी समस्याओं का सही विवेचन और समाधान होगा। परिवार की शक्ति का लाभ समाज को भी मिलेगा। स्त्री का विमर्श परिवार विमर्श में ही रेखांकित हो।
आपने साहित्य, समाज और सियासत – तीनों को काफी करीब से देखा है। तीनों के बीच कैसे सामंजस्य बिठाते हैं?
जिसके ऊपर अधिक जिम्मेदारियां रहती हैं, उसे अपने कामों के बीच सामंजस्य बिठाना पड़ता है। सख्ती से पालन करना पड़ता है। फिर तो सभी जिम्मेदारियां पूरी होती रहती है। साहित्य रचना, सामाजिक और सियासत की जिम्मेदारियां मिलता-जुलता कार्य क्षेत्र है। समय के नियोजन के कारण मैं सामंजस्य बिठा लेती हूं।
साहित्य में सच का बोलबाला है, तो सियासत झूठ-प्रपंच का खेल। एक साहित्यकार बेहतर राजनीतिक कैसे बन सकता है?
साहित्य तो सत्यम, शिवम सुन्दरम से ओतप्रोत होना ही चाहिए। लेकिन राजनीति का भी वही उदेश्य है। संस्कारी मनुष्य, परिवार और समाज की रचना करना साहित्य का उदेश्य है। साहित्य भी सत्य, शिव ओर सुन्दर हो और उसके द्वारा रचित समाज भी सत्यता, शिवत्व और सुन्दरता के आसपास हो। परंतु समाज की ऐसी रचना में राजनीति का भी महत्वपूर्ण योगदान है। समाज को सुखी और संपन्न, व्यक्ति को शिक्षित और समर्थ बनाना राजनीति का लक्ष्य है। राजनीति और साहित्य दूर-दूर नहीं है। कभी-कभी देखा जाता है कि समाज में यदि नैतिक मूल्यों का ह्रास होता हे तो साहित्यकार भी प्रभावित होता है और राजनीति भी प्रभावित होती है। और दोनों के प्रभावित होने से समाज अवनति की ओर ही जाता है। परंतु उसी समाज में ऐसे साहित्यकार और राजनैतिक नेता उत्पन्न होते हैं जो पुनः अपने पुरातन संस्कृति के अनुकूल समाज को ले जाने का संकल्प लेते हैं। ऐसे साहित्यकार और ऐसे नेता कालजयी होते हैं। हमारे समाज में ऐसे कालजयी साहित्यकारों और नेताओं की कमी नहीं, जो आज भी समाज के लिए अनुकरणीय हैं। साहित्यकार और राजनीतिज्ञ में एक बड़ी समानता है। दोनों को अतीव संवेदनशील होना चाहिए। साहित्यकार अपनी संवेदना के बल पर ही समाज के सुख-दुःख हास-परिहास, जीवन-मरण को अपनी लेखनी का विषय बनाता है। सच्चा राजनीतिज्ञ भी समाज से इन्हीं विन्दूओं को उठाकर उनका समाधान निकालता, समाज को आगे बढ़ाने की चेष्टा करता है। यदि किसी व्यक्ति में अतीव संवेदनशीलता है तो वह एक अच्छा साहित्यकार होगा। उसे मौका मिलेगा तो एक सफल राजनीतिज्ञ भी होगा।
आम धारणा है कि राजनीति बुरी चीज बन चुकी है। आपकी क्या राय है?
समाज में किसी क्षेत्र के दो़-चार व्यक्तियो और घटनाओं को लेकर ही धारणा बनाने की पहल होती है। कभी-कभी धारणा बनाने में हम जल्दीबाजी भी कर लेते हैं। राजनीति के प्रति जो धारणा बनी है, वह गलत नहीं है। ऐसे लोगों का राजनीति में प्रवेश हो चुका है जिनका लक्ष्य शघ्रता से कोई पद प्राप्त करना है। आर्थिक लाभ उठाना है। ऐसे लोगों ने राजनीति को बदनाम भी किया है। राजनीति का दीर्घगामी लक्ष्य होता है। अपना नहीं, जनता का हित देखना होता है। लेकिन आज भी राजनीति में आने वाले लोगों में राजनीति के सही अर्थ को समझने वालों की संख्या अधिक है। इसलिए थोड़ी बहुत खामियों के साथ राजनीति सही राह पर ही चल रही है। ज्यादातर अच्छे से अच्छे लोगों को राजनीति में प्रवेश करना चाहिए। समाजहित अपना ध्येय बनाना चाहिए। अंततः उन्हीं का लाभ होता हे। पहचान मिलती है, सम्मान मिलता है। ऽ बीते कुछ दिनों से आपने एक नया प्रयोग किया है। लोकोक्तियों को कहानी और उदाहरण के माध्यम से जनता के बीच पहुंचाने का कार्य। आखिर, इसके पीछे आपकी सोच क्या है?बचपन से ही इन कहावतों को सुनती आई हूँ। उम्र बढ़ने के साथ स्वयं प्रयोग करने लगी। मेरे बच्चे भी इन कहावतों का प्रयोग करते हैं। अमेरिका में रह रहे दोनों बच्चों के मुख से परिस्थितिवश कहावतें उच्चरित हो जाती हैं। मुझे सुनकर सुखद लगता है। मानो उनमें मेरी दादी-नानी, चाचा-चाची और माँ जीवित हैं। वे भी अमेरिका पहुंच गए। मन में आया बहुत सारे बच्चे आज इन कहावतों से वंचित हो गए हैं। ये कहावतें अपने आप में अपने समय के दस्तावेज हैं। पुराना समय इन कहावतों के साथ वर्तमान हो जाता है। ढ़ेर सारी सीखें भी। इसलिए मैंने एक-एक कहावत का शब्दार्थ, भावार्थ और उसकी सीख कम-से-कम शब्दों में लिखना प्रारंभ किया है। ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के पटना अंक में छपकर ये कहावतें बहुत प्रतिष्ठा पा रही हैं। लोग इसे गहराई से पढ़ते हैं, आनंद लेते हैं। मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता होती है। अपने ऐतिहासिक साहित्य और कला का संयोजन अपने अंदर पुरखों को जीवित रखना ही है।
आप बिहार से आती हैं। वर्तमान में गोवा की राज्यपाल हैं। बिहार और गोवा की संस्कृति कई मायनों में अलग है। आपने कैसे तालमेल किया?
इसमें तालमेल की कोई आवश्यकता नहीं है। गोवा की लोकसंस्कृति पर भी जब विचार किया और जानने का समय मिला तो यह बिहार या अन्य राज्यों से भिन्न नहीं है। गोवावासिन्दों के पांव अपनी संस्कृति में गहरे धंसे हैं। दोनों राज्य में भाषा की विभिन्नता के सिवाय लोकसंस्कृति की कोई भिन्नता नहीं है। इसलिए मुझे दोनों समाज अपने में बांधता है। थोड़ा सा खानपान में भिन्नता है। अब राजभवन में भी बिहारी स्वाद के व्यंजन बनने लगे हैं। पिछली होली में पहली बार यहाँ तीन सौ लोगों के लिए पुआ, खीर, दहीबड़े और कटहल की सब्जी (दम) मेरे निरीक्षण में बनाया गया। राजभवन परिसर में आम और कटहल के वृक्ष बहुत हैं। पहली बार राजभवन में दोनों के अचार बने। अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों के निर्वहन एव जनता के बीच कार्यक्रमों में भागीदारी के साथ महिला होने के नाते अपने वैसे कत्र्तव्य निभाकर भी सुख और संतोष मिलता है।