मृदुला सिन्हा जी का व्यक्तित्व वो अथाह सागर है जिसमें डूबकी लगानेे का साहस करना आसान नहीं। लेकिन डुबकी लगाने के पश्चात ही आप उस रत्नाकर गर्भ में प्रवेश कर, मंथन कर , उनमें से अमूल्य रत्न प्राप्त कर सकते हैं। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है 1998 में सर्दियों के दिन थे। स्थान था दिल्ली के रायसीना रोड पर स्थित प्रेस क्लब सभागार। समय दोपहर का था। सर्द मौसम में गुनगुनी धूप के बीच यहीं पर मैं मिली थी मृदुला जी से। उन्होंने अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया था। पता नहीं उनमें कौन-सी सम्मोहन शक्ति थी, जो मुझे तत्काल आकर्षित करती गई। अद्यावधि बरकरार है। मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत सहज सरल अभिव्यक्ति, जो उन्हें औरों से विशिष्ट बनाता है। एक तरफ मनोहारी साहित्य और दूसरी तरफ व्यक्तिगत व्यवहार में निहित संवेदनात्मक सहृदयता , माधुर्य और अपनत्व भाव से भरा व्यक्तित्व। नव -नव उद्भावना से परिपूर्ण।
कुमकुम झा
जिंदगी की अनुभूतियाँ जिंदगी के साथ रहती है। कदम दर कदम एक नया एहसास देती है। यादों में से कुछ यादें साथ -साथ चलती है और ले जाती हैं एक खूबसूरत जहान में। बहुत हिम्मत बटोरकर लेखनी उठाती हूँ। कागज के पन्ने पलटकर सामने रखती हूं। कुछ चिन्तन करती हूं और फिर कुछ समय पश्चात लेखनी को विराम दे देती हूं। ययह सिलसिला एक बार नहीं, तीन से चार बार चला है। आखिर कुछ लिखने का साहस बटोर ही लिया। जिनको आप बेहतर जानते हैं, जिनकी लेखनी को आत्मसात किया है, जो आज एक मुकाम पर जा बैठी हैं, वैसे विराट व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी लिखना आसान कहां होता है !
मृदुला सिन्हा जी का व्यक्तित्व वो अथाह सागर है जिसमें डूबकी लगानेे का साहस करना आसान नहीं। लेकिन डुबकी लगाने के पश्चात ही आप उस रत्नाकर गर्भ में प्रवेश कर, मंथन कर , उनमें से अमूल्य रत्न प्राप्त कर सकते हैं। मुझे आज भी अच्छी तरह याद है 1998 में सर्दियों के दिन थे। स्थान था दिल्ली के रायसीना रोड पर स्थित प्रेस क्लब सभागार। समय दोपहर का था। सर्द मौसम में गुनगुनी धूप के बीच यहीं पर मैं मिली थी मृदुला जी से। पहली बार उनका साक्षात् भाशण सुना था। उन्होंने अपना सारगर्भित वक्तव्य दिया था। पता नहीं उनमें कौन-सी सम्मोहन शक्ति थी, जो मुझे तत्काल आकर्षित करती गई। अद्यावधि बरकरार है। मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत सहज सरल अभिव्यक्ति, जो उन्हें औरों से विशिष्ट बनाता है। एक तरफ मनोहारी साहित्य और दूसरी तरफ व्यक्तिगत व्यवहार में निहित संवेदनात्मक सहृदयता , माधुर्य और अपनत्व भाव से भरा व्यक्तित्व। नव -नव उद्भावना से परिपूर्ण। कवित्व षक्ति से आप्लावित व्यक्तित्व। यही है इनकी विलक्षणता। गाँव की पगडंडी से गोवा के राजभवन पहुंचने तक की यात्रा के उपरान्त भी कैसे अपनी कला परंपरा को अक्षुण्ण रखा जा सकता है, वो कोई इनसे सीखे ।
माननीय मृदुला सिन्हा जी सद्यः प्रतीक हैं। पिछले तीन दषक से ज्यादा से साहित्य के संग-संग सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय हैं। महामहिम राज्यपाल बनने के बाद भी साहित्य साधना में रत हैं। नियमित तौर पर साहित्य सृजन में तल्लीन हैं। जब कभी मिलती हैं, तो हमें भी सीख देती है कि साहित्य रचना पढ़ना, गुनना एक साधना है और इस साधना में लगी रहो।
मिथिला की धिया होने के कारण भी शायद उनसे कैसे सान्निध्य बढ़ता गया, नहीं जान सकी। मुलाकात दर मुलाकात में वो अपना बनाती गईं। कभी बडी बहन के रूप में, कभी मां के रूप में उनका दुलार मिलता रहा। हर मुलाकात में पहले से अधिक आपकता। स्नेह। वात्सल्य। उनकी दर्जनों पुस्तक, सौ से ज्यादा लेख पढ़ चुकी हूँ। बहुतों को पढना अभी षेश है। आज यदि यह कहा जाय कि श्रीमती मृदुला सिन्हा स्वयं में एक संस्था बन चुकी हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जो लोग उनको जानते हैं, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित हैं, वे इसे सहज ही स्वीकार कर लेंगे।
आज जबकि समाज में आत्मकेन्द्रित लोंगों की संख्या बढ़ती जा रही है, स्वयं को बड़ा दिखाने के तरह -तरह के हथकंडे अपनाए जातेे हैं। एक मुकाम हासिल कर लेने के बाद कोई भी अतीत को अथवा पुराने परिचितों को याद नहीं नहीं रखना चाहता है, वैसे में मृदुला जी को अपने पथ का हर कंकड याद है। मानों वह हर कंकड को षंकर का प्रसाद मानकर स्मरण रखती हों। यही सोच, उन्हें सबका प्रिय बनाता है।
स्याह सच तो यह है कि तनिक सफलता से लोगों में अहं का भाव आता है। लगता है कि विनम्रता दुर्लभ गुण हो गया हो। लेकिन, आज भी मृदुला जी के रूप में हमारे सामने एक ऐसा व्यक्तित्व है, जो हर रूप में सहज है। सरल है। आत्मसात करने योग्य है। एक घटना बताती हूं। 26 अगस्त 2014 को, जब उन्होंने राज्यपाल गोवा का पदभार संभाला, तो हममें से बहुतों को ऐसा लगा कि अब उनसे संपर्क करना षायद आसान ना हों। महामहिम का पद, उसकी गरिमा। उसका प्रोटोकाॅल। उसकी व्यस्तता। अब हमें अपनी प्रिय लेखिका का साहचर्य षायद ही सुलभ हो। लेकिन यह क्या, जब मैंने पूछा कि अब कैसे आपसे संपर्क किया जा सकता है? तो बड़े ही सहज और अपनत्व भाव से कह दिया कि ‘‘उसी नम्बर पर फोन करना।’’ यह सहजता आज कहाँ है !
खासकर सत्ता में रहने वाले लोगों में। सत्ता की धमक उन्हें छू भी नहीं पायी है। उन्होंने विभिन्न विधा में करीब पाँच दर्जन पुस्तकें लिखीं। साथ ही अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की अनेक समस्या के समाधान का सूत्र भी दिया है।
मैं स्वयं को सौभाग्यषाली मानती हूं कि उनका स्नेह औरों से अधिक मुझे मिला। वैसे, यह मेरी आत्मप्रवंचना भी हो सकती है। एक घटना और। उनकी रचित पुस्तक “सीता पुनी बोली” को जब मैंने पढ़ा, तो पढती गई। आत्मसात करने के सिवा और कोई विकल्प कहां षेश था उस सषक्त लेखनी के सामने। एक -एक पन्ना पलटती रही और पलकें भींगती रही। उन्हीं भींगी आँखों से ही प्रण किया कि इस पुस्तक का अनुवाद मैथिली में करूंगी। मिथिली की धिया की बात, मिथिला की धिया ने आत्मकथात्यक षैली में में लोगों के सामने पेष किया है, तो मैं भी तो उसी मिथिला की धिया हूं। मेरा भी तो कुछ कर्तव्य है। मिथिला की धिया की बात जब मैथिली में लोगों तक पहुंचे, तो हर धिया के लिए यह गर्व की बात होगी।
मृदुला जी जैसी विदुशी लेखिका के द्वारा लिखा गया उपन्यास जिसमें सीता जी की तेजस्विता और षौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक हृदयस्पर्शी उपन्यास को मैथिली में अनुवाद करना आसान नहीं था। शुरू में अनुवाद करने से पहले थोड़ी ठिठकी। असमंजस में रही बहुत दिनों तक कि उनके भाव की तह तक क्या पहुंच पाएंगे !
लेकिन फिर उतनी ही सहज गति से आगे बढ़ती गई । जैसे मैथिली स्वयं अपना मन खोल कर पढ़ रही हो। अपनी पीड़ा अपने दर्द को अत्सव में परिवर्तित कर रही हो। जो भी प्रसंग हो, राम के संग वन गमन , रावण द्वारा हरण , पति द्वारा गर्भवती सीता का निर्वासन पढ़ने और सुनने वालो को दर्द की अनूभूति देता हो लेकिन सीता ने वन , लंका या वाल्मीकी आश्रम सभी जगह विशम परिस्थितियों को भी सम और सुखद बनाया। लंका और आश्रम का जीवन भी सीता के जीवन का उत्सव काल रहा। जैसे -जैसे रामकथा आगे बढ़ता है, सीता का व्यक्तित्व विस्तृत होता जाता है। मुझे पुस्तक का सबसे मार्मिक अंश सीता का धरती में विलीन होने वाला अंश लगा। जब वो घोशणा करती हैं, “ मैं पृथ्वी पुत्री सीता जो लव कुश की जननी हैं, इक्ष्वाकु वंष की इन दोनों संतानों को उनके प्रतापी वंष को अर्पित कर अपनी दायित्व को पूर्ण किया, अब मैं चलती हंू। बहुत थक गई हूँ, मानों मेरी शक्ति क्षीण हो गया । पुनः शक्ति प्राप्ति के लिए धरती ही सबसे उपयुक्त स्त्रोत हैं। मैं लव कुश की जननी अपनी जननी का आलिंगन कर उनके गोद में विलीन होना चाहती हूँ।’’
बडे से बडा संकट में अविचल रहने वाली । विवेकशील ,संयम के बल पर आगत संकट का धैर्यपूर्ण सामना करने वाली सीता। किंतु सीता के चरित्र पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं, किंतु मृदुला जी ने उन्हें मानवी मानकर उनके मर्म के अंतस्थल तक पहुंचने , उनके मर्म की थाह लेने की चेश्टा की है। यह उपन्यास ऐसे ही अनेक प्रश्नों का उत्तर है। मुझे बहुत खुशी है कि मुझे मृदुला सिन्हा जी जैसे ओजस्वनी का सानिध्य मिला। वो सहज है, सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि कोई भी जिज्ञासु लेखक -लेखिका यदि उनके समीप पहुँचते हैं, तो वो उनकी रचना को पढ़ती हैं और सिर्फ पढ़ती की नहीं हैं अपितु अपने मूल्यवान विचार उसे हृदयग्राही भी बना देती हैं। रचनाकार उनसे पे्ररणा से पुनः रचना करने की शक्ति मिलती है और वो निरंतर अपनी साधना में लीन हो जाते हैं और एक वो भी अग्रिम पंक्ति के साहित्याकारों में खड़े हो जाते हैं।
आज मैं ही नहीं अपितु कई लोग मृदुला जी के आर्शीवाद और प्रेरणा से कवि , कथाकार ,अध्यापक बन समाज और साहित्य सेवा में लगे हुए हैं। साहित्यक क्षेत्र में हमेशा उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया है। जब मैंने ’सीता पुनि बोली‘ के मैथिली अनुवाद की अनुमति के लिए पत्र लिखा, तो उन्होंने मुझे अनुमति देकर मेरा मनोबल बढ़ाया और पुस्तक के लोकार्पण के बाद अनुवाद की तारीफ भी की।
इससे पहलें भी मैंने अपने प्रिय नेता और पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता संग्रह ‘मेरी इक्यावन कविताएँ’ का मैथिली में अनुवाद किया है, जिसका शीर्षक है – “ हमर एकावन कविता”।
मृदुला जी ने जब कभी किसी से मेरा परिचय करवाया, तो यह जरूर कहती हैं कि इन्होंने अटल जी कविता का मैथिली अनुवाद किया है। और तो और, मुझे भी इस परिचय से इससे गर्व का अनुभव होता है। आज भी उनका मार्गदर्शन और स्नेह प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त है मुझे।
मृदुला जी की तरह प्रशासनिक एवं साहित्यक कार्य करने की क्षमता सक्रिय सहयोग करने की तीव्र इच्छा दूसरे व्यक्ति में देखना कठिन है। उन पर कोई भी साहित्य एवं संगठनात्मक कार्य भार होने पर निश्चित रूप से क्रमवार तरीके से पूरा करती है चाहे कोई भी हो अपने समकालीन अग्रज एवं गुरुतुल्य सभी के साथ इनका व्यवहार अत्यंत मधुर और ष्शालीन होता है। इतने सालों में मैंने कभी भी किसी से कठोर बात करते नहीं देखा। अपनी बात को मधुर मुस्कान के मिश्री में घोलकर ही कहती हैं। अपने कार्य , अपने उत्कर्ष , अपनी सफलता प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर और मित्र एवं सहयोगी की सहायता एवं सहयोग के लिए भी उतनी ही तत्पर होती हैं। लेखिका संघ के विभिन कार्यक्रमों में उन्होंने अपनी उपस्थिती से हम सभी का मान बढ़ाया है। जब भी आती रहीं हैं हम सबको एक नई उर्जा एक नई शक्ति की संजीवनी भर जाती हैं।
उनके गोवा की राज्यपाल बनने के बाद लेखिका संघ का एक प्रतिनिधिमंडल गोवा राजभवन गया। मेरा सौभाग्य है कि मंै भी उस प्रतिनिधिमंडल में थी। उनका आतिथ्य भाव-भिवोर कर गया। राजभवन में अतिथि, आज भी सुनहरी याद स्मृति पटल पर आते हैं, अंदर से खुषी मिलती है। उस गोवा प्रवास की सुनहरी यादों को पूरे जीवन के लिए संजोकर रख लिया है। गोवा राजभवन की सुनहरी यादें , शान्त सागर में साहिल तक आती बेचैन लहरें , हमारे पाँवों के पास लिपट कर वापस जाती लहरें , चुपचाप छोड़ अपने वजूद की निषानी रेत पर आड़ी तिरछी लकीरें खींचकर चली जाती लहरें हमारे दिलों भी उठते अक्सर एहसासों और जज्बातों के रेले कभी खामोष ,कभी बाहर आने को मचलते उन खूबसूरत लम्हों के छोटे -छोटे हुजूम सजते बूँद -बूँद मोतियों की तरह हाथों में मृदुला जी की दी हुई गुरहल के फूलों-सी लाल साड़ी समेटे लौट आई दिल्ली। गोवा की महामहिम राज्यपाल स्नेहमयी मृदुला सिन्हा जी की आत्मीयता और स्नेह से भरा आतिथ्य ने हम सभी को अभिभूत कर दिया। उनका स्नेह अपनापन जीवन पर्यंत हमारे दिलों में रहेगा। धन्यवाद और शुक्रिया सरीखे शब्द बौने हो गए। बस, एक ही दुआ है मृदुला दीदी के लिए कि -हर लम्हा आपके होठों पर मुस्कान रहें।
हर गम से आप अन्जान रहें।
फूलों सी महके आपकी जिंदगी।
जो बुझे ना फीके पड़े कभी ।
हमेशा वो मधुर मुस्कान रहें।
(यह विचार प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक “सहजता की भव्यता” से ली गई है।)