–पंडित जसराज
हमारा देश उत्सव प्रधान देश है। जीवन के हर पल को हम उत्सवधर्मिता के साथ मनाते हैं। हर उत्सव का संगीत है। हर पर्व का संगीत है। सात शुद्ध और पांच कोमल स्वरों के माध्यम से मन को साधने का उपाय है संगीत। योग से काया को निरोग बनाया जाता है, वहीं संगीत से काया के साथ मन-मस्तिष्क भी शुद्ध होता है।
सनातन संस्कृति में कई पर्व-त्योहार हैं। इसमें मेरा सर्वप्रिय त्योहार है होली का। यह मेरे अराध्य का त्योहार है। राधा-कृष्ण का पर्व है। इसमें होरी गाया जाता है। संगीतज्ञ के साथ आम जन भी होरी गाते हैं। पूरे देश में उत्सव का माहौल होता है। प्रकृति में भी नवजीवन का संचार होता है। नव कोपलें पेड-पौधें पर दिखाई देता है। यही वह सुवसर है, जब प्रकृति भी हमें अपने अराध्य से साक्षात्कार करवाने में सहायक होता है। उनको संगीत के माध्यम से समझने का है अवसर है। रंगों से खेलते समय मन में खुशी, प्यार और उमंग छा जाता है और अपने आप तन मन नृत्य करने को मचल उठता है। लय और ताल के साथ पैर को रोकना मुश्किल हो जाता है। रंग अपना असर बताते हैं, सुर और ताल अपनी धुन में सब को डुबोये चले जाते हैं।
होली के सतरंगी रंगों के साथ सात सुरों का अनोखा संगम है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत शैली के दस रूप हैं: ध्रुपद,, धमार, होरी, खयाल, टप्पा, चतुरांग, राग अगर, तराना, सरगम और ठुमरी। इनमें से ध्रपुद को सबसे प्राचीन माना जाता है तथा बाकी सभी शैलियों का जन्म भी इसी से हुआ। होरी ध्रुपद का ही सबसे लोकप्रिय रूप है, जिसे होली के त्योहार पर गाया जाता है। ये रचनाएं मुख्यतः राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग और वसंत ऋतु पर आधारित होती हैं। इसे शास्त्रीय व अर्धशास्त्रीय दोनों रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। होरी को साधारणतः बसंत, काफी व खमाज आदि रागों और दीपचंदी ताल में गाया जाता है। ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों की कई बंदिशें दशकों से चली आ रही है। ध्रुपद में एक बोल है:
खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी,
कंचन पिचकारी करण, केसर रंग बोरी आज।
भीगत तन देखत जन, अति लाजन मन ही मन,
ऐसी धूम बृंदाबन, मची है नंदलाल भवन।
वहीं जब धमार में गाते हैं: आज पिया होरी खेलन आए— तो तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है। गायन और वादन दोनों में इसका प्रयोग होता है। इसे चैदह मात्रा की धमार ही नाम की ताल के साथ विशेष रूप से गाया जाता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में बसंत, बहार, हिंडोल और काफी ऐसे ही राग हैं, जो होली के लिए एक तरह से बने हैं। जैसे: बसंत राग की बंदिश है –
फगवा ब्रज देखन को चलो रे,
फगवे में मिलेंगे, कुँवर कां
जहाँ बात चलत बोले कागवा।
कई लोग मुझसे कई बार पूछते हैं, क्या होली बदल रहा है ? रंगों का इस्तेमाल कम हो रहा है ? मैं तो वैसे लोगों से साफ कहता हूं कि होली नहीं बदला। बदले हैं हम। बदली है हमारी सोच। हां, 21वीं सदी में कई परेशानियों से जूझने के बाद हमने प्रकृति की सत्ता को स्वीकार किया है। प्राकृतिक और हर्बल रंगों की ओर हम झुके हैं। होली हमें सनातन से प्रकृति की ओर ही जाने को कहती रही हैं। यदि कुछ लोग प्रकृति के संकेतों को नहीं समझेंगे, तो उसमें किसका दोष है।
संगीत वही है। साधना का मार्ग वही है। ईश्वर वही हैं। मनुष्य की एक आम सोच है कि वह स्वयं को नहीं तौलता, सामने वाले पर आरोप लगाता है। स्वयं को जान लें। कई सवालों के जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएंगे।
हां, तकनीक का जमाना है। हमें समय के साथ चलना होगा। संगीत ने भी समय का साथ निभाया है। पहले किसी भी आयोजन में हजारों की भीड होती थी, अब कम हो रही है। क्योंकि, लोग तकनीक से अधिक दोस्ती कर चुके हैं। मेरे भी कई सीडी, डीवीडी आए। यू-टयूब पर कई सारे इवेंट्स की रिकाॅर्डिंग हैं। लोग उससे संगीत का लुत्फ उठाते हैं। डिजिटल जमाने में हमें भी डिजिटाइशेन को स्वीकार करना पडा। समय के साथ आप नहीं चले, तो कौन आपके साथ रहेगा। समय होत बलवान।
युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा था, किंतु मूल तत्व एक ही रहे। व्यावसायिकता के चलते पारंपरिक चीजें लोगों के सामने नहीं आ पा रही हैं। थोड़े बहुत होली के लोकगीत फिल्मों के कारण लोगों के सामने आ पाए हैं। रीमिक्स और फिल्मों के जरिये होली के लोकगीत रातोंरात प्रचलित हो जाते हैं और लोगों की जुबान पर आ जाते हैं, लेकिन लोक गायकों को वह स्थान नहीं मिल पाता है, जिसके वे असली हकदार हैं। शास्त्रीय संगीत में लोक संगीत के ढेरों होली के गीत गाए जाते हैं, लेकिन शास्त्रीय संगीत का एक निश्चित श्रोता वर्ग है। इस कारण जन सामान्य इसका लुत्फ नहीं ले पाता है।
संगीत की तरंगें जब अधरों में गायन बन प्रस्वुटित होंगी, तब-तब मधुर स्वरों की गंगा में गोते लगाने को आप मचलेंगे। मधुर प्यास की पिपासा अति तीव्र होगी। धीरे-धीरे संगीत और गायन में तल्लीन हो जाएंगे। उस मीठी खुमारी में आप सदा मदमस्त रहेंगे। फिर तो आपका अराध्य से सदा सामीप्य रहना निश्चित है।
संगीत और ईश्वर एक ही हैं। दोनों को आप जुदा नहीं कर सकते। एक को पाना है, तो दूसरे में डूबना ही होगा। अधिकांश ऐसा होता है मेरे साथ कि मैं गायन में स्वरों को खोजता हूं। यही खोज मेरा जुनून बन जाती है। बस, एक ही लगन कि अपने गायन में अपनी स्वर की तलाश कर लूं। जब-जब यह स्वर मुझे मिलती, तब-तब मेरा सांवरा मेरे पास होता हैै। सलोना मेरे साथ होता है। यह मेरी ही नहीं श्रोताओं की भी अनुभूति है। स्वर की अनुभूति में मुझे साक्षात गोपाल का दर्शन होता है।
दुख होता जब कोई कलाकार या उस्ताद गायन की बंदिशों को काॅपीराइट करा लेते हैं। बहुत सारे पद पुष्टिमार्गी कवियों की रचनाओं में से लिए गए होते हैं और कह दिया जाता है कि फलां उस्ताद या फलाँ पंडित की बंदिश हैं। गायन में शब्दों का महत्व है। अच्छा लगता है जब मेरे साथ मेरा संगीत हर दिन उम्र के नए पायदान पर कदम रखता है। आज शास्त्रीय संगीत को लेकर कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं। बहुतेरे फनकार इसमें अपनी एलबम के जरिए इसमें नयापन उड़ेल रहे हैं। अच्छा है शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार हो रहा हैै। दुनिया मेरे देश के संगीत को सुन रही है, उसे अपना रही है।
(संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज से बातचीत पर आधारित)
प्रस्तुति: दीप्ति अंगरीश