यह सच कहा गया है कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है, इस कथन को चरितार्थ किया है बिहार (हाजीपुर) के ‘उद्यान रत्न एवं ‘राष्ट्रीय कांस्य पदक से सम्मानित किसान शंकर किशोर चौधरी, जिन्होंने कन्दों का महाराजा ओल (सूरन) से न सिर्फ 56 प्रकार के व्यंजन तैयार कर आम जन तक पहुंचाया है, बल्कि कृषि अनुसंसधान व औषधीय क्षेत्र में एक नया अध्याय भी जोड़ा है। शंकर किशोर चौधरी, प्रगतिशील किसान का कहना है कि ओल एक ऐसा व्यवसायिक फसल है जिसमें आज भी संभावना काफी है। लेकिन किसानों को इसके लिए प्रशिक्षण की जरूरत है। ओल की खेती के साथ कई और सब्जी व फल की खेती की जा सकती है। शंकर किशोर चौधरी से संवाददाता मानवेंद्र की खास बातचीत।
-आप कब से ओल की खेती कर रहे हैं ?
हमने ओल की खेती 1995 में शुरू किया। सबसे पहले हम मुजफ्फरपुर के सबसपुर में कृष्णा मेडिकल कॉलेज के पास सवा क्विंटल ओल के साथ एक कट्टा खेती शुरू किया। रिस्पांस हमें काफी अच्छा मिला। उसके बाद हमने आठ क्विंटल ओल और फिर चालीस क्विंटल के साथ दो एकड़ जमीन लीज पर लेकर खेती शुरू किया। उसके बाद सिलसिला बढ़ता चला गया। आज हम जगह जगह जाकर लोगों को इसकी खेती के लिए प्रेरित करते हैं।
-आपको ओल की खेती के लिए प्रेरणा कहां से मिली ?
दरअसल 1990-91 में बिहार में बहुत सारे प्लांटेशन कंपनियां कृषि क्षेत्र में संभावना तलाश रही थी। तभी हमारा भी ध्यान इस ओर गया। हम आपको बता दें कि उस समय खेतान, पाटला, और बहुत सारी कंपनियां प्रदेश में आ रही थी। तभी मैं वन औषधि निर्देशिका, हिंदी विभाग, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित होती है जिसे लाकर अध्ययन किया जिसमें 231 प्रकार की जड़ी बूटी के बारे में दिया हुआ था जिसका हमने अध्ययन किया। तभी ऐसा हुआ कि हमने एक अखबार में पढ़ा की 2020 में बारिस की पानी में चालीस फीसदी एसीड की मात्रा होगा। जिससे फल फूल नष्ट होंगे लेकिन जमीन के अंदर का फल को नुकसान नहीं पहुंचने वाला है। फल महंगा हो जाएगा। इसी से हमारे दिमाग में आया की क्यों नहीं ओल की ही खेती किया जाए और बस मैं इसकी खेती करने के लिए शुरू कर दिया।
-क्या आपको लगता है कि इसकी खेती कर व्यवसायिक लाभ कमा सकते हैं ?
बिल्कुल व्यवसायिक लाभ कमा सकते हैं। बस थोड़ा जागरूकता लाने की जरूरत है। हम आपको बता दें कि 1978 में आंध्र प्रदेश से मात्र पांच कंद आया था और आज बिहार से दो हजार ट्रक कंद बाहर जाता है जिसमें गोवा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, प बंगाल, आंध्र प्रदेश और असम में भेजा जाता है। बिहार के दस जिलों में इसका उत्पादन हो रहा है।
-आप कितने एकड़ में इसकी खेती कर रहे हैं। और आपकी आमदनी कितनी होती है ?
हम अभी दस एकड़ में खेती कर रहे हैं। इस बार आठ ट्रक हमने कंद का उत्पादन किया। हम आपको बता दे कि बीस पच्चीस हजार की प्रति महीने खेती करने से अच्छा हमारी खेती है।
-ओल के साथ-साथ और किस चीज की खेती कर सकते हैं ?
ओल के साथ लता कस्तूरी, कद्दू, करेला, पपीता, परवल, नवंबर-दिसंबर में राजमा-मटर की खेती की जा सकती है। केला की खेती तो बड़े आराम से होती है यह आपने हमारे बगान में देखा भी है।
-क्या राज्य सरकार से आपको कोई सहायता मिलती है। या आत्मा से कोई सहायता मिला हो ?
यही दुर्भाग्य है। कोई सहायता नहीं मिला है। जरूरत महसूस होता है लेकिन सिस्टम इतना बिगड़ा हुआ है कि इसमें जाकर सहायता लेने में भी दिक्कत है। आत्मा से भी कोई सहायता नहीं मिला है। हां एक बार बिहार सरकार भुवनेश्वर भेजा था।
-आप सोनपुर मेला में जाते रहे हैं आपको वहां कैसा रिस्पांस मिलता रहा है?
सोनपुर मेला में 2008 तक जाते रहे जहां आपने देखा है वहां काफी अच्छा रिस्पांस मिलता रहा है। आपने दूरदर्शन पर भी दिखाया था आपने लोगों के उत्साह को भी देखा था। अब सोनपुर मेला में मल्टीनेशनल कंपनियां आ गई हैं जो जमीन को ले लेती है। वहां जगह लेना बहुत मंहगा पड़ता है जिसके चलते अब हम वहां नहीं जाते हैं। यहां तक कि अब वहां जमीन और दुकान खाली रहती है और हमलोगों भी नहीं जाते हैं।
-हमने आपके द्वारा बनाया गया ओल का रसगुल्ला का रस्वादन भी किया था सोनपुर मेला में। बहुत स्वादिष्ट था क्या आप अब भी बनाते हैं ?
जी हां हम अब भी मनाते हैं। उससे भी ज्यादा अच्छा बनाने के लिए प्रयासरत रहते हैं अब तो हम सुगर फ्री रसगुल्ला और मिठाई बनाने की चेष्टा कर रहे हैं। लेकिन कॉस्ट ज्यादा पड़ जाता है यह एक केवल कष्ट हैं लेकिन मैं निरंतर रिसर्च में लगा हूं। ताकि लोगों को स्वादिष्ट व्यंजन खिला सके।
-क्या ओल से अन्य औषधि भी बनाते हैं ?
ओल अपने आप में एक औषधि है। पाइल्स में तो इसके सेवन के लिए कहा जाता है। जो दवाइयां आती है उसमें कंपोनेट के रूप में आपको ओल जिसे जिमीकंद भी कहते हैं रहता है। ओल से दंतमंजन, फेसक्रीम भी बनता है। ओल के छिलका से ही यह सब बनता है।
ओल औषधीय गुणों से भरपूर होता है। इसमें तीक्ष्णता, वातहर,दीपन, पायन, रुचिकर, पौष्टिक, कृमिनाशक, कफनाशक जैसे गुणधर्म हैं। पेट संबंधी विकारो, दमा, फेफड़े की सूजन, फाइलेरिया, पेचिश, रक्त विकार, वमन और बवासिर जैसी बीमारियों के लिए ओल और इसके सभी उत्पाद फायदेमंद हैं। इसकी खेती बेहद कम पूंजी में होती है, जिसमें लाभ की संभावना अधिक होती है।
-क्या आपको आईसीएआर से कोई सहायता या ट्रेनिंग मिलती है ?
हम आपको बता दें कि आईसीएआर में हम ही ट्रेनिंग देने जाते हैं किसान को। हम कोशिश करते हैं कि प्रदेश के नहीं देश भर के किसान इसकी खेती के लिए जागरूक हो और इसकी खेती का प्रचार प्रसार हो।
-आपको कौन कौन से अवार्ड मिला है ?
कई एनजीओ हमें सम्मानित कर चुके हैं जिसमें एचपी सिंह निदेशक, आईसीएआर के द्वारा भी हमें सम्मानित किया जा चुका है। भारतीय सब्जी अनुसंधान परिषद द्वारा राष्ट्रीय कांस्य पद से सम्मानित किया गया। कृषि विभाग भारत सरकार द्वारा वर्ष 2010 मेँ उद्यान रत्न अवार्ड एवं 2013 में आईसीएआर द्वारा भी सम्मानित किया गया। डीडी दिल्ली द्वारा ओल तेरा जवाब नहीं नाम से डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुका है।
-आप अपने नाम से कम ओल चौधरी के नाम से प्रदेश भर में प्रसिद्ध है। क्या किसानों के बिहार में कुछ काम हुआ है। बिहार में प्रत्येक जिले में राष्ट्रीय बागवानी मिशन लागू है। क्या इसका लाभ हुआ है ?
सब केवल कागज पर काम हुआ है। आज बिहार में व्यवसायिक खेती आज की आवश्यकता है। लेकिन आज इस दिशा में कुछ ज्यादा काम नहीं हो पाया है। बिहार सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
-क्या आप अपने प्रदेश के प्रगतिशील किसानों से कहेंगे कि ओल की खेती करें ?
जी हां जिनके पास छोटा बगीचा भी हो। वे नौकरी करते हुए इंटरक्रांपिंग कर सकते हैं। इससे लाभ यह होगा कि दूसरे फल जल्दी पक जाएंगें। अमरूद, लीची के बगीचे खेती में इसकी खेती की जा सकती है। पाला की संभावना बहुत कम होती है। इसकी खेती में कीटनाशक की बहुत कम जरूरत होती है। अगर आपके पास मजदूर की कमी है तो एक साल तक अपने खेत में ही ओल को रख सकते हैं और दूसरे साल इसे अपने खेत से निकाल सकते हैं।