राजस्थान में आज भी दलितों के लिए वाध्यायता है चाहे कानून भले ही कुछ कहता हो। आश्चर्य है कि जो तबका देश में आरक्षण के समीक्षा की बात कर रहा है वो जातिवाद का दंश खत्म करने की बात कभी नहीं करता। कई लोगों का तो ये भी कहना है कि आरक्षण इसलिए खत्म कर देनी चाहिए क्योंकि जातिवाद खत्म हो चुका है। जबकि आज भी मोहल्ले के नाम जातियों के नाम पर रखे जाते हैं।
अखिलेश अखिल
कौन कहता है कि देश आजाद है ? फिर कौन कहता है कि आजाद भारत में दलितों की हालत बदल गयी। क्या अपनी मर्जी से आज भी वह समुदाय कुछ कर सकता है ? देश में आज भी कई ऐसे इलाके हैं जहां दलितों को सामंतो के लिए वह हर काम दबाब से बने रिवाज के तहत करना पड़ता है जो संविधान में कहीं दर्ज नहीं है। दबाब और जबरन ना संविधान में दर्ज है और ना ही किसी समाज की वाध्यायता। लेकिन राजस्थान में आज भी दलितों के लिए वाध्यायता है चाहे कानून भले ही कुछ कहता हो। आश्चर्य है कि जो तबका देश में आरक्षण के समीक्षा की बात कर रहा है वो जातिवाद का दंश खत्म करने की बात कभी नहीं करता। कई लोगों का तो ये भी कहना है कि आरक्षण इसलिए खत्म कर देनी चाहिए क्योंकि जातिवाद खत्म हो चुका है। जबकि आज भी मोहल्ले के नाम जातियों के नाम पर रखे जाते हैं।
वसुंधरा सरकार के राजस्थान में आज भी सामंतों (कथित उंची जाति को लोग) के यहां किसी के मौत पर वो खुद नहीं रोते। उनके यहां मौत पर दलित समाज की महिलायें रुदाली करती है और दहाड़ मारकर। अगर दहाड़ मारती महिलाये रुदाली नहीं करेंगी तो उनकी सामत आ जाती है। अपनों के ले लिए तो आंसू सब बहाते हैं लेकिन राजस्थान में रुदालियाँ गैरों के लिए दहाड़ मार कर रोटी है और उनके पुरुष मुंडन करवाते हैं। रोना-हंसना ये सब एक भावना है लेकिन राजस्थान में दलित महिलाओं को जबरन अपने दुख में रूलाया जाता है।दुःख सामंतो का लेकिन रुदाली दलित महिलाओं की। क्या समाज है ?अनपढ़ और बेलज्ज। जो अपने लोगों की मौत पर आंसू भी नहीं बहा सकते भला वह मानव कैसा !
सामतों के घर कोई मर जाए तो कई दिनों तक उन्हीं के घरों पर जाकर मातम मनाना पड़ता है। इन रुदालियों का रुदन आज भी राजस्थान के आदिवासी और पिछड़े जिलों में गूंजता है। अभी भी यहां सैकड़ों रुदालियां हैं।
राजस्थान के सिरोही जिले में आज भी ऐसे दर्जनों गांव हैं जहां रुदालियाँ रहती है और वह सामंतो के दुःख में जाकर रुदाली करती हैं। रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, वड़वज, उडवारिया, मारोल, पामेरा में रुदालियों के सैकड़ों परिवार रहते हैं।
इतना ही नहीं दलित पुरुषों को भी ऐसा ही दंश झेलना पड़ता है। अगर किसी कथित उंची जातिवालों के यहां कोई मर जाता है तो पूरे गांव के दलितों को सिर मुंडवाना पड़ता है। दलित परिवार के बच्चे से बूढ़े तक का जबरन मुंडन करवाया जाता है। अगर कोई रुदाली रोने न जाए या दलित सिर न मुंडाए तो उस परिवार के लिए प्रताड़नाओं का दौर शुरू हो जाता है।
माना जाता है कि रुदाली की यह परम्परा राजस्थान में करीब दो सौ साल से है। चुकी इस बारे में कोई कानून नहीं है इसलिए यह परम्परा जारी है। लोगों का कहना है कि राजा -राजवाड़ों और जमींदारों के यहां जब किसी की मौत हो जाती थी तो मातम मनाने के लिए दलितों को लाया जाता था। इसके पीछे की कहानी यह थी कि चुकी रुदाली से ककमजोरी होती है और चेहरा विकृत हो जाता है इसलिए अपने चेहरे की सुंदरता बचाये रखने के लिए गरीब और दलित जातियों को यह काम दे दिया गया।
लोकतंत्र का यह परिहास मात्र है। मरे कोई और रोये कोई गजब की कहानी है। इस प्रथा को ख़त्म करने की जरूरत है। दलितों के साथ यह सब किसी अन्याय से कम नहीं। यह भारत जैसे देश के भी कलंक के सामान है।