डॉ धनंजय गिरि
भारतीय संस्कृति में नवसंवत्सर केवल एक नया वर्ष नहीं, बल्कि एक नवीन ऊर्जा, आशा और सकारात्मकता का प्रतीक होता है। यह समय आत्ममंथन, संकल्प और नए कार्यों की शुरुआत का होता है। विभिन्न भारतीय पंचांगों के अनुसार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नवसंवत्सर मनाया जाता है। यही वह दिन है जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इसी कारण इसे ‘सृष्टि दिवस’ भी कहा जाता है।
नए वर्ष का स्वागत हमें नए संकल्पों के साथ करना चाहिए। आत्मविकास, समाजसेवा और राष्ट्रहित के कार्यों को प्राथमिकता देकर हम इस नवसंवत्सर को सार्थक बना सकते हैं। इस पावन अवसर पर सभी को नवसंवत्सर की मंगलकामनाएं! यह वर्ष सभी के लिए सुख, समृद्धि और शांति लेकर आए।
भारत के विभिन्न राज्यों में इसे अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। महाराष्ट्र और गोवा में ‘गुड़ी पड़वा’, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘युगादी’, कश्मीर में ‘नवरेह’ और राजस्थान में इसे ‘थपना’ के रूप में मनाया जाता है। इन सभी त्योहारों में स्वच्छता, पूजा-पाठ, विशेष व्यंजन और समाजिक आयोजनों की प्रमुखता रहती है।
काल अपने सुंदर रथ पर सवार होकर प्रत्येक वर्ष मधुर नवसंवत्सर लाता है। काल को सर्वशक्तिमान देवता माना गया है। अथर्ववेद (9-53) में ऋषि भृगु ने इसकी महिमा का गुणगान करते हुए कहा है, “काल-अश्व विश्वरथ का नियंत्रक है, सहस्र नेत्रों से सबकुछ देखता है। संपूर्ण लोक कालरथ के चक्र हैं और ज्ञानी इस रथ पर आरूढ़ होते हैं। काल सात चक्रों का वाहक है, इसकी सात नाभियां हैं और इसकी धुरी में अमृत स्थित है। ज्ञानी इसे विविध रूपों में देखते हैं।”
ऋषि भृगु आगे कहते हैं, “काल से ही सृष्टि के सर्जक प्रजापति प्रकट हुए। काल स्वयंभू है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुआ। उसी से समस्त विश्व प्रकट हुआ, उसमें तप, मन और ज्ञान समाहित हैं। काल ही विश्व का पालन करता है और वही पिता तथा पुत्र भी है। काल के कारण पृथ्वी गतिशील है, सूर्योदय और सूर्यास्त संभव होते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान सब काल में समाहित हैं।”
सृष्टि शून्य से उत्पन्न नहीं हो सकती। रचना से पूर्व कोई मूलभूत तत्व रहा होगा, जिसमें संपूर्ण पदार्थ और ऊर्जा समाहित थी। उस मूल तत्व में गति आई, जिससे अव्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति हुई। गति ही परिवर्तन का आधार है और गति से ही काल का बोध संभव होता है। वैदिक निरूक्त में यास्क ने काल को गति से संबद्ध किया है।
काल अखंड सत्ता है। वह सर्जक भी है और संहारक भी। काल की अनुकंपा से आयु मिलती है, तो उसका कोप मृत्यु का कारण बनता है। काल में ही सृजन और विसर्जन दोनों समाहित हैं। भारतीय कालबोध अत्यंत प्राचीन है, जो ऋग्वेद से भी पुराना माना जाता है। यही अवधारणा बाद में ईरान तक पहुँची, जहाँ अवेस्ता में ‘जुर्वान’ को उसी प्रकार प्रतिष्ठा मिली, जैसे अथर्ववेद में ‘काल’ को।
भारतीय दृष्टि में काल संपूर्ण ब्रह्मांड का नियंता और प्रजापति का भी पिता है। इसमें प्रकाश और अंधकार दोनों समाहित हैं। ‘जुर्वान’ भी अनंत है और उसके संतान अहुरमज्दा भारतीय प्रजापति के समान हैं। जब न आकाश था, न पृथ्वी, तब केवल ‘जुर्वान’ ही था—इस अवधारणा में ऋग्वेद के सृष्टि-सूक्त की प्रतिध्वनि मिलती है।
भारतीय नवसंवत्सर किसी महापुरुष की जन्मतिथि से नहीं जुड़ा, बल्कि सृष्टि के आरंभ से इसकी गणना होती है। अंग्रेजी कालगणना ईसा से प्रारंभ होती है, लेकिन वैदिक संवत्सर की गणना सृष्टि के प्रारंभिक क्षण से होती है। यह संवत्सर सार्वभौमिक है, क्योंकि यह व्यक्त सृष्टि का प्रथम ऊषाकाल, प्रथम सूर्योदय और ब्रह्म का प्रथम सुप्रभात है।
ऋग्वेद (10.82.6) के अनुसार, “सृष्टि के आरंभ से ही प्रकृति विद्यमान है, जिसे ‘अज’ (अजन्मा) कहा गया है। इसी अज की नाभि में समस्त भुवन समाहित थे।” आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान में इसे ‘कॉसमॉस’ कहा जाता है। अज गतिशील हुआ, जिससे परिवर्तन संभव हुआ। विज्ञान के अनुसार, हर सृजन और परिवर्तन के पीछे ऊर्जा होती है। ऋषियों ने इन्हीं ऊर्जा शक्तियों को देवता कहा।
ऋग्वेद (10.190.1, 2) में कहा गया है कि “तप से ऋत और सत्य (व्यक्त जगत्) प्रकट हुए। अंधकार, रात्रि और समुद्र उत्पन्न हुए। इन्हीं समुद्रों से संवत्सर का जन्म हुआ।” सृष्टि के साथ काल भी उत्पन्न हुआ और इस काल का प्रथम दर्शन संवत्सर में हुआ।
भारतीय दर्शन में ‘कालचक्र’ की अवधारणा है, जो निरंतर घूमता रहता है और बार-बार सृष्टि और प्रलय लाता है। प्रकृति में द्वैत विद्यमान है—रात्रि-दिन, जीवन-मृत्यु, प्रकाश-अंधकार, विश्रांति-सक्रियता। सृष्टि अपने लयबद्ध छंद में गतिशील है और काल का रथ अनवरत घूम रहा है।
भारतीय कालगणना में पहले कालबोध आता है, फिर उसकी गणना की जाती है। इस गणना के अनुसार, सृष्टि की आयु अब तक 1 अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 113 वर्ष हो चुकी है। वैज्ञानिक अनुमान भी इसी के आसपास हैं। वैदिक संवत्सर की गणना सूर्य और संपूर्ण सौर परिवार के आधार पर होती है।
ऋग्वेद (1.164) में कहा गया है, “सूर्य को हमने सात किरणों के साथ देखा है। इसके मध्य भाई वायु हैं और तीसरे भाई अग्नि हैं। ऋत का 12-अरों वाला चक्र द्युलोक में घूमता है, जो कभी जीर्ण नहीं होता। इसके 720 पुत्र इस चक्र में हैं।” यहाँ ऋत प्रकृति की व्यवस्था है, 12 अरे अर्थात 12 माह और 720 अहोरात्र पूरे वर्ष को दर्शाते हैं।
‘टाइम’ और ‘काल’ समानार्थी नहीं हैं। काल अखंड सत्ता है, जबकि टाइम उसका खंड मात्र है। ऋग्वेद में कहा गया है, “जो हो चुका और जो होगा, वह सब अदिति है, वही पुरुष है।”
यूरोपीय दृष्टि में भूतकाल (पास्ट) एक ‘टेन्स’ यानी मानसिक तनाव है, जबकि भारतीय दृष्टि में भूत, भविष्य और वर्तमान एक सतत प्रवाह में हैं। पश्चिमी अवधारणा में अतीत स्मृति में सीमित रहता है और भविष्य केवल मानसिक आकर्षण है, लेकिन भारतीय कालबोध में समय अनवरत प्रवाहमान है।
भारतीय कालगणना सृष्टि की शुरुआत से चलती है, जिसमें संवत्सर और युगों की अवधारणा समाहित है। वैदिक संवत्सर केवल समय की गणना नहीं, बल्कि सृष्टि और ब्रह्मांडीय लय के साथ जुड़ा हुआ है। यही इसकी अद्वितीय विशेषता है।
(लेखक संघ से जुड़े हैं और भाजपा के प्रवक्ता हैं।)