निशिकांत ठाकुर
हर बार की तरह इस बार भी जब विषय का चयन कर रहा था तो वह राजनीति और राजनीतिज्ञों का विषय बार-बार सामने आ रहा था। लेकिन, मन इन विषयों पर केंद्रित नहीं हो रहा था। सोच रहा था कि कुछ अलग लिखना चाहिए। कुछ ऐसा लिखूं, जो प्रासंगिक ही नहीं, लोगों को जागरूक करने वाला भी हो। दरअसल, देश में आज कई तरह के आंदोलन चल और चलाए जा रहे हैं। इनमें कुछ सरकार के विरुद्ध चल और चलाए जा रहे हैं, तो कुछ के जरिये सरकार के पक्ष की बात की जा रही है। लेकिन, इसी बीच एक गंभीर, नहीं अतिगंभीर विषय सामने आ गया, जिसपर आपलोगों से बात करना और उसे आपकी जानकारी के साथ लाना उचित लगा।
इसी विषय पर मंथन करने के दौरान बहुत दिन पहले शिव प्रसाद सिंह के अद्भुत पौराणिक उपन्यास ‘वैश्वानर’ की कथा याद आ गई, जिसमें महानतम वैद्य धन्वंतरी ने काशी में फैली तकमा नामक महामारी की औषधि की खोज कर ली थी, लेकिन उसका परीक्षण किसी जीव-जंतु अथवा अन्य वस्तु पर करने के बजाय उन्होंने स्वयं अपने ऊपर किया। इस मार्मिक प्रसंग का चित्रण जिस प्रकार लेखक ने किया है, वह वाकई अतुलनीय है। कथा आगे बढ़ती गई। पाठकों को समझाने के उद्देश्य से वेदों तथा उपनिषदों के ऐसे उदाहरण दिए गए, जिसके कारण पुस्तक को एक सांस में पढ़ने का मन होने लगता है। कहानी सरस्वती नदी के सूखने के उपरांत वहां से वरुणा और असी के किनारे जाकर पुनर्वासित हुए लोगों की है। अभी इसी प्रकार के महामारी रूप के चुका कोरोना पूरी दुनिया में पांव पसार चुका है, हजारों लोगों के लिए काल बन चुका है। लाखों लोग इसकी चपेट में हैं। हजारों असमय मौत के गाल में समा चुके हैं। दुनिया की करीब एक अरब की आबादी संक्रमण के डर से घरों में कैद है। जबकि, इस लाइलाज बीमारी के उपचार के लिए अब तक किसी प्रकार की दवा अथवा वैक्सीन का इजाद संभव नहीं हो सका है। लेकिन, उम्मीद की किरण यह है कि पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुकी इस महामारी की काट के लिए दवा खोजने एवं बनाने का काम शुरू है। हां, कब तक इसकी दवा ढूंढी जाएगी या ईजाद की जाएगी, अभी भी इस संबंध में कुछ कह पाना संभव नहीं है। पूरी दुनिया में कर्फ़्यू जैसा माहौल हो गया है। ऐसे ही समय में एक खबर उत्तर बिहार के कोशी नदी के किनारे बसे कुछ जगहों की आई है, जहां कैंसर जैसी महामारी ने जिंदगियों को लीलना शुरू कर दिया है। काश, आज वहां भी कोई वैद्य धन्वंतरी होते!
उत्तर बिहार का अभिशाप माना जाने वाला कोशी आजादी के इतने साल बाद भी अपना कहर बरपा रहा है। उत्तरी बिहार का सहरसा जिला, जहां कोशी कमिश्नरी का मुख्यालय भी है, कोशी के किनारे बसा सत्तर कटैया नामक एक ब्लॉक (प्रखण्ड) है। यह मधेपुरा लोकसभा सीट के अंतर्गत आता है। वहां पिछले एक वर्ष में पचास से ज्यादा लोगों की मौत कैंसर नामक भयंकर बीमारी से हो चुकी है। इसका खुलासा समाचार पत्रों में लगातार होता रहा है, लेकिन स्थानीय स्तर पर ही इस बीमारी का प्रभाव मानकर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता था। पीड़ित अपना इलाज अपना घर-जमीन बेचकर करते रहे, लेकिन इसका कोई समुचित इलाज नहीं पा रहा है और रोग में कोई कमी के बदले लोगबाग असामयिक मौत से जूझ रहे हैं। धन्य हो सोशल मीडिया का, जिसमे सत्यम कुमार झा ने एक वीडियो पोस्ट किया है। इस पोस्ट को देखकर यही लगा कि यदि मीडिया इस दिशा में तत्काल जागरूक नहीं हुई तो हम फिर उसी आदम युग में चले जाएंगे, जिससे निकलकर, उबरकर हम अभी अभी बाहर आए हैं। इस पोस्ट के जरिये बताया गया है कि बिहार सरकार अपनी ओर से प्रयास तो कर रही है, लेकिन उसका इस ओर जिस प्रकार का सार्थक प्रयास होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। दिन-प्रतिदिन कैंसर पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है और लोग अपनी जमीन-जायदाद, घर-द्वार बेचकर इलाज कराने के बावजूद काल के गाल में समा जाने के लिए विवश हैं।
निश्चित रूप से बिहार सरकार को अपनी ओर से इस तरफ गंभीर प्रयास तो करना ही पड़ेगा, लेकिन अब केंद्र सरकार को भी इसमें अपनी भागीदारी दिखानी होगी, अन्यथा कैंसर जैसी भयानक, जानलेवा बीमारी बिहार सरकार के बलबूते रुकने वाली नहीं है। यह जांच का विषय है कि आखिर कोशी के तट पर बसे इन सभी गांवों की ऐसे स्थिति क्यों और कैसे हो गई, जहां के निवासी मौत की घाटी में अपनी मौत के आने का इंतजार कर रहे हैं। अब देखना यह है कि कोरोना वायरस का इलाज करने की दवा का इजाद तो पूरा विश्व मिलकर कर लेगा, लेकिन जिस बीमारी का इलाज खोजा जा चुका है, उससे पीड़ित-प्रभावित लोगों को बचाने के लिए बिहार सरकार और भारत सरकार कहां तक गंभीर और सार्थक प्रयास करती है। यदि कोशी के तट पर बसे गांवों में तत्काल जागरूकता अभियान नहीं चलाया गया, तो इस बात में कतई संदेह नहीं कि कुछ दिनों में कैंसर से होनेवाली मौतों का अंदाजा लगाना और मृतकों की संख्या गिनना भी असंभव हो जाएगा।
(लेखक विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)